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________________ अनेकान्त जय मवन-कदन-मन करणनाश, गंभीर थी।। ऋषभदासजी प्रकृतितः भद्रपरिणामी और जय शांतिरूप निजसुख विलास परीक्षा प्रधानी थे । जब वे किसी वस्तु का विवेचन करते जय कपट सुभट पट करन चूर, थे, तब उसे तर्क की कसौटी पर कसकर परखते थे ।पाप जय लोभ क्षोभमद-दम्भसूर । का लिखा हुआ मिथ्यात्वनाशक नाटक उर्दू भाषा मे पर परिणतिसों प्रत्यन्त भिन्न, लिखा गया था 'जो मनो रंजक ज्ञान बर्धक मूल्यवान कृति निजपरिणति है प्रति ही अभिन्न । है । उससे कवि के क्षयोपशम और प्रतिभा का पता अत्यन्त विमल सब ही विशेष, चलता है उसके एक दो भाग ही छपे है । परन्तु खेद है मल्लेश शोष राखो न लेश ॥" कि वह नाटक पूरा नही छप सका । उसकी एक मात्र प्रति अट्ठाईसवे कवि पडित ऋषभदासजी है। जो चिल कर्ता के हाथ की लिखी हुई है। इनकी दूसरी कृति काना जिला सहारनपुर के निवासी थे। चिलकाना सहारन पच 'बालयति पूजापाठ' है जिसे कवि ने विबुध सतलाल पुर से ६ मील की दूरी पर वसा हुआ है। यह भी अग्रवाल के अनुरोध से वि० स० १९४३ मे माघशुक्ला अष्टमी के जैन थे । इनके पिता का नाम कवि मगलसनजी और वावा दिन समाप्त किया था। "पूजा राग समाज, तातै जैनिन का नाम सुखदेवजी था। पिता सम्पन्न थे जमीदारी और योग किम्" प्रश्नो के समाधान को लिये हुए है। यह साहूकारी का कार्य करते थे। ऋषभदासजी ने चिलकाना बीसवी सदी के एक प्रतिभासम्पन्न कवि थे। पापका २६ मे किसी मुसलमान मियां से ३-४ वर्ष तक उर्दू का अभ्यास वर्ष की लघुवय मे ही स्वर्गवास हो गया था। यदि वे किया था। हिन्दीका लिखना पढ़ना उन्होने अपने पिताजी अधिक दिन जीवित रहते तो किसी अनमोल साहित्य की से सीखा था । और उन्हीं के साथ स्वाध्याय द्वारा जैन सौरभ से समाज को सुबासित करते । सिद्धान्त का ज्ञानप्राप्त किया था। ऋषभदासजी सतलाल उनतीसवे कवि मेहरचन्द है। जो 'श्वनिपद' वर्तमान जी नकुड़ के नजदीकी रिश्तेदार थे । इनकी बुद्धि अत्यन्त सोनिपत नगर के निवासी थे और प० मथुगदास के लघु तीक्ष्ण थी और वह स्वभावत. तर्क की ओर अग्रसर होती भ्राता थे। यह मस्कृत और फारसी के अच्छे विद्वान थे। थी । उनके सहयोग से जैन दार्शनिक ग्रथा के अध्ययन आपने शेख सादी के सुप्रसिद्ध काव्यद्वय 'गुलिस्ता और करने की जिज्ञासा हुई और परिणाम स्वरूप, परीक्षामुख, वोस्ता' का हिन्दी में अनुवाद किया था, जो छप चुका है। प्रमाण परीक्षा। और प्राप्तपरीक्षादि ग्रथो का अध्ययन कवि ने आचार्य मिल्लिषेण के 'सज्जिनचित्तवल्लभ' का किया। जिसमे बुद्धि के विकास में और भी विशदता हिन्दी अनुवाद और पद्यानुवाद किया था, यह पद्यानुवाद आई । छप चुका है। पाठकों की जानकारी के लिए दो पद्य नीचे __ मंगलसैनजी ने अपने दोनो बेटो को अलग-अलग साह- दिये जाते है । पद्यानुवाद भावपूर्ण और सुन्दर है :कारी की दुकान करादी थी। ऋषभदासजी उर्दू फारसी "औरन का मरना प्रविचारत, तू अपना अमरत्व विचार । और हिन्दी संस्कृत के अच्छे विद्वान थे और हिन्दी में अच्छी इंद्रिय रूप महागज के, वशिभूत भया भव-भ्रांति निवार । कविता भी करते थे। उनके अन्तर्मानस में ज्ञानकी पिपासा प्राजहि प्रावत वाकल के बिन, काल न त यह रंच विचार ।। और धार्मिक लगन थी, और हृदय मे जैन ग्रन्थो के अभ्यास तौगह धर्म जिनेश्वरभाषित, जो भवसंतति वेग निवार ॥१४ की उमग थी। वे अच्छे सभाचतुर थे और प्रवचन करने चाहत है सुख क्या पिछले भव, दान दिया ग्रह संयम लीना । मे दक्ष थे । ऋषभदासजी ने ५० भीमसेनजी आर्य समाजी नातर या भव मैं सुख प्रापति हो न, भई सो पुराकृत कीना। के नवीन प्रश्नो का ऐसा तकं सगत उत्तर दिया था जिसे जो नहि डारत बीज मही पर, ध्यान लहै न कृषी मतिहीना। बाबू सूरजभानजी ने अन्य विद्वानो को दिखलाया तब वे कीटक भक्षित ईख समान, शरीर वर्ष तज मोह प्रवीना ।१५ चकित रह गये और आर्य समाजी सदा के लिये चुप हो गए । उनकी बुद्धि विलक्षण थी और लेखनी सरस एवं १ देखो, अनेकान्त वर्ष १३, किरण ६ प्र. १६५
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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