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________________ अनेकान्त ममाकृष्य यदापानात् पूरण स तु पूरकः । कुछ मगत नही दिखता। वहा के पाठभेद के अनुसार नाभिपदमे स्थिरीकृत्य रोषनं स तु कुम्भः ॥५-७ पूरक का लक्षण यह होता है-'समाकृष्य यदा प्राणधारण पहा यह विचारणीय है कि क्या ये दोनो श्लोक मत परकः । तदनमार , जानार्णव मे योगशास्त्र से लेकर उद्धृत किये गये है। इस वह तो पूरक है' यह सम्बद्ध पर्थ नही है। 'यदा' का विषय में अभी अन्तिम निर्णय करना तो शक्य नही है। 'तदा' मे जैसा मम्बन्ध अपेक्षित है वैसा 'स.' से नही कारण कि बहुधा ऐमा हुमा करता है कि प्रकृत विषय के बनता, और योगशास्त्रगत 'समाकृप्य यदापानात् पूरणं स विद्वान कूछ समानता देखकर ग्रन्थान्तरो के प्रवतरणों को त पूरक' पाठभेद के अनुमार सम्बद्ध अर्थ यह होता हैहस्तलिखित प्रतियों के मार्जिन प्रादि पर लिख देते है, जा अपान वायु से खेच कर जो (यत्-अपानात्) पूर्ण किया प्रागे चलकर उस प्रनि के माधार से अन्यान्य प्रतियो के जाता है वह परक प्राणायाम होता है। लेखकों द्वाग उसी का अंग समझ कर मूल प्रति मे सम्मि- अन्यत्र परक के लक्षण इस प्रकार उपलब्ध होते लित कर दिये जाते है। इसके अतिरिक्त यह भी सम्भव है-'दक्षिणेन बाह्यपरणं पूरक' (यो. सू. ना. भट्टवृत्ति है कि 'उक्तं च श्लोकद्वयम्' यह पाठ मूल मे न रहा हो २-५०)। अर्थात् दक्षिण नामिकापुट से बाह्य वायु को और पीछे किसी प्रकार से जुड़ गया हो। पूर्ण करना, इसका नाम पुरक है। इसके अतिरिक्त दोनों ग्रन्थो मे उन दोनो श्लोको का वक्त्रेणोत्पलनालेन तोयमाकर्षयेन्नरः । क्रमव्यन्यय भी विचारणीय है। यदि प्रा. शुभचन्द्र बुद्धि एवं वायुगहीतव्यः पूरकस्यति लक्षणम् ।। पुरस्मर उन दोनो इलोको को योगशास्त्र से लेकर उद्धृत अर्थात् जिस प्रकार मनुष्य कमलनाल के द्वारा मुख व ग्ते है तो उनके विपरीत बम से उद्धृत करने का कोई मे जल को खीचना है उसी प्रकार वायु को जो ग्रहण कारण नहीं दिखता। यह अवश्य है कि ज्ञानार्णव में पूरक, किया जाता है, यह पूरक का लक्षण है। कुम्भक और रेचक इन तोन वायुनों का जो ऋम रहा है। दूसरे श्लोक मे जो 'पुरानन ' के स्थान में ज्ञानाणव (देग्विा श्लोक ३) तदनुसार वहा वे दोनो श्लोक यथाक्रम में 'पुरतन' पाठभेद हुया है वह त और न को बनावट मे ही है। साथ ही योगशास्त्र में भी उनके जिस क्रम को मे अधिक भेद न होने के कारण लिपिदोप मे हुमा है। अपनाया गया है तानुमार वे वहा भी यथाक्रम से ही है। और यह पाठ चूकि हिन्दी टीकाकार श्री प. जयचन्द्रजी के वास्तव में तो पुरातन योगविषयक ग्रन्थो में उक्त वायुनो सामने रहा है, अतएव उन्होने "नासिकाब्रह्म के जानने के क्रम के विषय मे मनभेद रहा ही है। यथा- वाले पुगतन पुरुषों ने कहा है" ऐसा अर्थ करके पाठ की स प्राणायामो बाह्यवृत्तिराभ्यन्तरवृत्ति-स्तम्भवृनि- मंगति बैठाने का प्रयत्न किया है, परन्तु उक्त अर्थ वस्तुत रित्ति त्रिधा, रेचक-पूरक-कुम्भकभेदात् ।xxx याज. मगत प्रतीत नही होता। वहां 'जानना' अर्थ का बोधक वल्क्येन पूरक-कुम्भक-रेचक इति क्रम उक्त.. कोई शब्द भी नहीं है। प्रत्युत इसके योगशास्त्रगत पाठ(योगसूत्र-नागोजीभवृत्ति २-५०) भेद के अनुमार 'अतिशय प्रयत्न पूर्वक जो वायु को दोनों ग्रन्थगत उन इलोको मे जो पाठभेद दृष्टिगोचर नासिका, ब्रह्मपुर और मुख के द्वारा बाहिर फेका जाता है होता है उस पर विचार करने से ज्ञानार्णव का पाठभेद उमे रेचक कहा जाता है। यह प्रर्थ सगत प्रतीत होता है। १. देखिए जैनसिद्धान्त-भास्कर भाग ११ किरण १५ *यो मू. २-४६ की जयकिसनदास जेठा भाई विरचित ६-१२ में श्री पं० फूलचन्द जी शास्त्री का "ज्ञाना- गुजराती टीका मे उद्धत । र्णव और उसके कर्ता के काम के विषय में कुछ ____ गुजराती अनुवाद-जेम कमलना नालवडे माणस शातव्य बातें" शीर्षक लेख तथा 'जैन साहित्य ब पाणीन माकर्षण करे छ तेज प्रमाणे नासिका व मुम्ब इतिहास' में स्व. श्रद्धय प्रेमी जी का "शुभचन्द्र का द्वाग वायु ने पाकर्षण करीने प्रपन्तर देशमा स्थापी ज्ञानार्णव" शीर्षक लेख । देवो ये पूरक लक्षण छ।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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