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________________ ज्ञानार्णव व योगशास्त्र: एक तुलनात्मक अध्ययन २५ रेचक का लक्षण योगसूत्र (२-५०) को नागोजी ये २ श्लोक योगशास्त्र के भी देखिएभट्टवृत्ति में इस प्रकार प्राप्त होता है ततः शनैः समाकृष्य पवनेन समं मनः। तत्र वामनामापुटेन अन्तर्वायोस्त्यागो रेचकः । योगी हृदय पदमान्तविमिवेश्य नियन्त्रयेत ॥३॥ प्रर्थात् बायें नासिकारम्ध्र से भीतरी वायु का त्याग ततोऽविद्या विलीयन्ते विषयेच्छा विनश्यति । करना-निकालना-इसका नाम रेचक है। विकल्पा विनिवर्तन्त जानमन्तविज़म्भते ॥४. उसकी पूर्वोक्त गुजराती टीका (पृ. २७५) मे उसके प्रागे जाकर दोनों ही प्रन्थों में यह कहा गया है कि लक्षणस्वरूप उद्धृत यह श्लोक उपलब्ध होता है उक्त प्रकार से चित्त के स्थिर हो जाने पर वायु का उक्षिप्य वायुमाकाश शून्यं कृत्वा निरात्मकम् । विश्राम कहा पर है, नाडिया क्या है, वायुमो का सक्रमण शून्यभावेन यजीयाद्रेचकस्येति लक्षणम् ।। नाडियों में किस प्रकार होता है, मण्डलगति क्या है, और अभिप्राय यह कि भीतरी वा! को [नासिका द्वारा] यह प्रवृत्ति क्या है; यह सब जाना जाता हैबाहिर निकाल कर निरात्मक करके शन्य प्राकाश में कुत्र श्वसनविश्राम: का नाउयः संक्रमः कपम् । जोडना-छोड देना-इसका नाम रेचक है । का मण्डलगतिः केयं प्रवृत्तिरिति बुध्यते ॥जा. १३ एक बात और भी है, वह यह है कि उक्त दोनो क्व मण्डले गतियोः सक्रम. क्व व विश्रमः । श्लोक चाहे प्रा. शुभचन्द्र द्वारा स्वय सग्रहीत किये गये का च नाडीति जानीयात तत्र चित्ते स्थिरीकृते । हो या विषय की समानता देखकर अन्य किसी के द्वारा यो. ५, ४१ मूल में सम्मिलित कर दिये गये हो; पर वे प्रा शुभ चन्द्र द्वारा पूर्व में निर्दिष्ट (४-६) उक्त पूरक प्रादि के लक्षणो तत्पश्चात् ज्ञानार्णव (श्लोक १६ व १८) और योगके पोषक है और किसी अन्य ग्रन्थ के ही है, अन्यथा पुन शास्त्र मे (५-४२) भी नासिकार को अधिष्ठित करके जो पार्थिव (भौम), वारुण, वायव्य और अग्निझविन अनिवार्य है। इसीलिए उनका अवस्यानक्रम श्लोक ६ के बाद सम्भव है। मण्डल, ये चार पुर (मण्डल) अवस्थित है उनके नामो का निर्देश किया गया है। इस प्रकार प्रसंगनाप्न उन दोनो श्लोको की स्थिति ज्ञानार्णव के उपर्युक्त दोनो श्लोको के मध्य में पर विचार करके अब हम प्रकृन विषय पर पा जाते है स्थित १७वे श्लोक में यह कहा गया है कि उक्त पार्थिव __उक्त दोनो श्लोको के अनन्तर ज्ञानार्णव में श्लोक १० मे कहा गया है कि योगी निरालस होकर वायु के प्रादि चार वायुमण्डल यद्यपि दुर्लक्ष्य है तो भी कुशाग्रमाथ मन को निरन्तर धीरे-धीरे हृदय-कमल की कणिका बुद्धि मनुष्य के लिए वे अभ्याम के वश स्वकीय संवेदन में प्रविष्ट कराते हुए उसे वही पर नियन्त्रित करे। फिर (स्वानुभव) के विषय बन जाते है। प्रागे २ श्लोकों द्वारा उस मन के स्थिर कर देने से क्या- यह मूचना योगशास्त्र में प्रागे-उन चारो के लक्षणक्या लाभ होता है, यह मूचित किया गया है। वे तीनो निर्देश के पश्चात् ---४७३ श्लोक द्वारा की गई है। श्लोक इस प्रकार है उन चारो मण्डली के लक्षण का निर्देश ज्ञानाणंद में शनैः शनर्मनोऽजस्र वितन्द्रः सह वायुना । क्रम से श्लोक १६-२२ के द्वाग और योगशास्त्र में श्लोक प्रवेश्य हक्याम्भोजकणिकायां नियन्त्रयेत् ।।१० ४३-४६ के द्वारा किया गया है । विकल्पा न प्रसूयन्ते विषयाशा निवर्तते । तदनन्तर जानाणंव में श्लोक २४.२७ भोर योगशास्त्र अन्तः स्फुरति विज्ञानं तत्र चित्त स्थिरीकृते ॥११ में श्लोक ४५-५१ द्वारा उक्न मण्डलों में सम्भव चार एवं भावयतः स्वान्ते यायविद्या भयं क्षणात् । वायुप्रों के म्पर्श, वर्ण, प्रमाण और नाम (१ पुरन्दर, विमबी स्युस्तषामाणि कषायरिपुभिः सम २. वरुण, ३. पवन और ज्वलन-दहन) का उल्लेख इसी भाव को वैसे ही शब्दों में अन्तहित करने वाले समान रूप से किया गया है ।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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