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________________ अनेकान्त पश्चात् दोनों ग्रन्थों में यह सूचना की गई है कि के ध्यान में प्रा जाने पर उसके पागे ३१वां लिख दिया म्तम्भादि कार्य में पुरन्दर (महेन्द्र-इन्द्र), प्रशस्त सब और संख्या मागे की डाल दी गई है। स्वीकृत क्रम के कार्यों में वरुण, चल-मलिन कार्यों में वायु और वश्यादि अनुसार पवन के पश्चात् दहन का उल्लेख किया जाना कार्य में वह्नि को उद्देश्य करना चाहिए-प्राज्ञा देना चाहिए था। चाहिए । यथा २ ज्ञानार्णव का ६१ और योगशास्त्र का २५०वा स्तम्भाविके महेन्द्रो वरुणः शस्तेषु सर्वकार्येषु । श्लोक उभयत्र शब्दशः समान है। चल-मलिनेषु च वायुर्वश्रादौ वह्निद्देश्यः ॥ ज्ञा. २८ ३ तुलना मे ६४ के बाद योगशास्त्र के २१५-१६ इन्द्रं स्तम्भाविकार्येषु वरुणं शस्तकर्मसु । प्रादि श्लोक पाते है। इसका कारण यह है कि वहा इस वायं मलिन-लोलेषु वश्यादौ वह्निमाविशत् । यो ५२ बीच में श्लोक ६५-८५ मे वामा नाडी (चन्द्रनाडी) और दक्षिणा नाडी (सूर्यनाडी) शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष मे इस प्रकार तुलनात्मक रूप से इतने क्रमिक विषय सूर्य-चन्द्र के उदयादि मे कैसा शुभाशुभ फल देने वाली है, विवेचन को देख कर पाठक यह निर्धारित कर सकेगे कि इत्यादि विचार किया गया है। प्रागे श्लोक ८६-२.४ मे उक्त दोनो में प्राथय-प्राश्रयी भाव अवश्य रहा है। पर काल का निर्णय-नाडी, जन्मनक्षत्र, नाडियो में वायुकिसने किमको आधार बनाया है, इस सम्बन्ध में अभी सचार, इतर शकुन-अपशकुन व स्वप्न प्रादि के प्रवलोकन कुछ न लिख कर यथावसर अन्य लेख के द्वारा उस पर के प्राश्रय से अन्य शुभाशुभ के साथ ही मृत्युकाल का भी कुछ प्रकाश डालने के लिए प्रयत्नशील रहूँगा। निश्चय किया गया है । इसके प्रागे २१२ श्लोक तक अब मैं पागे अधिक विस्तार में न जाकर इन दोनो विद्याबल से उस काल का विचार किया गया है। इस सब ग्रन्थों की श्लोकसंख्या का निर्देश मात्र कर देता हूँ जो की सूचना वहा निम्न श्लोको द्वारा की गई हैविषय, अर्थ और बहुताश मे शब्दो की अपेक्षा भी परस्पर मे समानता रखते है । यथाक्रम से मिलान कीजिये प्रथेवानी प्रवक्ष्यामि किचित कालस्य निर्णयम् । सर्यमार्ग समाश्रित्य स च पौष्णे च गम्यते ॥८६ ज्ञानाणव-२६-३२, ३३-३४, ३५. ३७, ३८, ३६, इति यन्त्रप्रयोगेण जानीयात् कालनिणयम् । ४०, ४३-४५, ४७, ४८-४६, ५०, ५१, ५२, ५३-५६, ६१, ६२-६३, ६४, ६५, ६६, ६७-६८, ६६, ७०, ७७, यवि वा विद्यया विद्याद् वक्ष्यमाणप्रकारया ॥२०॥ एवमाध्यात्मिकं का विनिश्चेतुं प्रसंगतः।। ५६.८०, ८१.८६, ८८.८६, ६१, १२, ६३.६८, ६६, १००, पृ. ३०५ श्लोक ५ उ., १० । बाह्यस्यापि हि कालस्य निर्णयः परिभाषितः ॥२१२ __ योगशास्त्र-५-५६, ५७-५८, ५६ का पू. व ६० उपर्युक्त यह सब वर्णन ज्ञानार्णव मे दृष्टिगोचर नहीं का पू.. ६० का उ. व ५६ का उ, ६५, ६६, ६७, ६२ हाता न होता है। से ६४, २१३, २१५-१६, २१७, २१८, २१६, २२० से ४ ज्ञानार्णव श्लोक १३-१८ और योगशास्त्र श्लोक २२६, २३०, २३१-३२, २२७, • ३३, ३४, २३६.३६, २५४.५६ मे परपुर प्रवेश- उत्तरोत्तर अभ्यास को २४०, २४१, २४२, २४३, २४४.४७, २४८-५६, २५०, बढ़ाते हुए योगी का क्रम से अकंतूल, जाति (मालती) २५१, ५२४-५६, २६१, ६-१, ६-४ पू, ६-५। मादि पुष्प, कपूर मादि गन्धद्रव्य, मूक्ष्म पत्रि-(पक्षि-) विशेष काय, भ्रमर-पतंग मादि के शरीर, मनुष्य घोडा-हस्तिशरीर १. ज्ञानार्णव के ३१-३२ श्लोको (प. २६०) मे और अन्त मे पत्थर प्रादि मे प्रात्मप्रवेश एवं नि.सरण की जो क्रमव्यत्यय उपलब्ध होता है वह लिपिकार के प्रमाद क्रिया-णित है। से हुमा दिखता है-किसी लिपिकार के द्वारा प्रमादवश यहा योगशास्त्र मे मागे के लोक मे यह सूचना दी ३१ को छोडकर ३२वा लिख देने पर व तत्पश्चात् गलती गई है कि इस प्रकार वाम नासिका से मृतशरीर में प्रवेश
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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