SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ पौली मंदिर, शिरपुर पुर के राडू (ईल) राजा ने यह अतरिक्ष पार्श्वनाथ का 'हम मैनेजर है' याने संस्थान की पूरी स्टेट के अकेले ही मंदिर बधाया। वह दिगबर जैनों का है।" प्रादि । सर्वाधिकारी हो गये ऐसे मनोराज्य में वे पीछे कब, कैसा (१२) श्री अं० पा० सस्थान के १६१० के केस में क्यों बके इसका विस्मरण होकर वे प्रब खद ही उस मंदिर परा २० के में जब दि. जैनों की तरफ से कहा गया की तारीफ कर रहे हैं। था शिरपुर का प्राचीन हेमाडपंथी मदिर श्री देवाधिदेव श्वेताबरो ने 'श्री प्रतरिक्ष पार्श्वनाथ' इस नाम से गुजप्रतरिक्ष पार्श्वनाथ की मूर्ति को विराजमान करने के लिए राती, हिन्दी, मराठी पोर संस्कृत भाषा मे एक किताब दिगंबर जैन ईल राजा ने बंधाया था। और उस पर का प्रसिद्ध की है। उसमें वे लिखते है-"वहां (शिरपुर मे) शिल्प भी दिगंबर पंथ का ही पोसक है" प्रादि । तब इस एक कलापूर्ण और विशाल सुन्दर जिनमदिर है। पौर विधान को ठुकराते हुए श्वेताबर कहते थे-"कि इस कलम उसके पास ही एक बड का बड़ा वृक्ष है। शिरपुर के में किया गया विधान वादी को मंजूर नही। यह लोग कहते है, कि इस ही पेड के नीचे प्रतिमा प्रचल मूर्ति विराजमान करने के लिए दिगबर धनिक ने यह और अधर हई थी। और इसी प्रतिमा के लिए ही राजा हेमाडपंथी मदिर बधाया नही। जिस श्वेताबरी राजा को ने यह मदिर बधाया है। लेकिन राजा के अभिमान से यह मूर्ति मिली और जिसने वह शिरपुर तक लाई वही भगवान ने इस मदिर में प्रवेश नहीं किया। इसलिए अब राजा ने मूर्ति के लिए एक मदिर बधाया। और उसमे वह मंदिर खाली है। यह बात अन्य दृष्टि से देखते हुए यह मूर्ति ले जाने का प्रयत्न किया। लेकिन वह सिद्धि को भी बराबर दीखती है। अनेक यूरोपियन अधिकारियों ने गया नही। उस राजा ने बघा हुमा मदिर हाल में पहले बहाड (विदर्भ) में प्रवास करके बहाड के शिल्प स्थापत्य जैसा कायम नही। उस मदिर का बहुत सा भाग अनेक पर लिखा है। उन्होंने कहाड के सुन्दरतम और प्राचीनतम कारणों से नष्ट हया है। और उसमे कालांतर से और शिल्प स्थापत्य मे शिरपुर गाव के बाहर होने वाले अपने कालगती से बहुत फेरफार हुए है। इससे 'शिरपुर गाव के जैन मदिर का भी वर्णन किया है। बहाड के महान पश्चिम बाज में हाल जो मंदिर है वह ही प्राचीन मंदिर इतिहासज्ञ यादव माधव काले इन्होंने वहाड चा इतिहास' है। अब जिस स्थिति मे है उस ही स्थिति मे जब बाधा नामकी पस्तक मे इम मदिर का पार्ट पेपर पर सुन्दर फोटो गया तब था' ऐसा वादी (श्वे०) मान्य नहीं करता। छपा के मुन्दर मचमुच इसकी मुन्दरता और महत्ता प्रका(देखो ता. २०-१२-१९११ का जवाब) शित की है। साथ ही शिल्पशास्त्रों के ऐतिहासिक टोप -श्वेतांबरों ने यह जवाब हेतुपुरस्सर दिया अभ्यास से भी यह स्पष्ट है कि शिरपुर का यह मदिर था। इस मंदिर का रूप अनिश्चित रख कर जिस मूति करीबन एक हजार माल पुराना है।" के लिए यह मदिर बनाया उसका भी स्वरूप अनिश्चित इन दोनो उतारो से पाठक समझ गये होगे कि ऊपर सा कर दिया। ऐसा नहीं करते तो इस मदिर के स्पष्ट का उल्लेख श्वेताबरो का स्पवचनवाधित ही है। यूरो. स्वरूप से, जैसा यह मदिर दिगंबरी सिद्ध होता है वैसा ही पियन और भारतीय लेखको के विचार इमी लेख मे दिए टिस मूर्ति के लिए यह मंदिर बनाया गया वह मूर्ति भी दिगबर पाम्नाय को स्पष्ट सिद्ध होती। यह मान्यता १. असल मे तो शिरपुर के वृद्ध लोग इस बात का उपश्वेताम्बरो को अनिष्ट थी, इसलिए उन्होने ऊपर जमा हास करते हुए कहते है कि यह वृक्ष हमारे सामने जवाब दिया और वह मून मूर्ति श्वेतांबर सम्प्रदाय की है लगाया गया है और इसके पहले न वहा कोई वृक्ष ऐसा कोठं को झूठा भास कर दिया। उससे उनको सिर्फ था और न वहा मूर्ति अड गयी थी। मूर्ति पौर मंदिर का केवल मैनेजमेट करने का अधिकार २. इस मदिर मे पहले जमाने से । नेक दि. जैन मूर्ति दिया गया। साथ मे दिगंबरो का भी समान रूप से पूजन प्रतिष्ठिन हैं। मगर वहा एक भी श्वेतांबर मूति न और मैनेजमेंट का अधिकार कायम रखा गया। लेकिन होने से उनकी दृष्टि से यह मंदिर रिक्त ही है।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy