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अनेकान्त
दिगम्बर जैन मूर्ति-यंत्र प्रादि लेखसंग्रह देखिए। वह अने- अँड इस्टर्न आचिटेक्टर।' इस किताब में एलोरा के जैन कान्त के पिछले अंकों में प्रकाशित हैं।
लेणी के बारे में लिखते हैं-'यहाँ के चैत्यालय और अन्य मूलनायक मूति बाबत लोकमत-देवाधिदेव १००८ भी एलिचपुर के राजा एड (एल) ने निर्माण की है। श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ प्रभु की मूर्ति श्रीपाल एल (ईल) उसने एलोरा यह गाँव देणगी खातिर निर्माण किया था। राजा को कहां से प्राप्त हुई इस बाबत दिगम्बर जैन क्योंकि यहां के एक झरे के जल से उसका रोग दूर हो साहित्य में पवली मन्दिर के नजदीक का कुवां ही बताया गया था। जाता है। तो भी श्वेताम्बर व अन्य साहित्य मे इस बाबत (३) श्री यादव माधव काले, 'वहाडचा इतिहास' भिन्न-भिन्न दो मत नजर आते हैं :
इस मराठी किताब में लिखते है.-पृ० ४६० पर 'शिरपुर (१) पहला मत-१४वी सदी के श्वेताम्बर मुनि यहाँ जैनों के दो प्रसिद्ध प्राचीन मन्दिर हैं। मुक्तागिरि जिनप्रभसूरि अंतरिक्ष पार्श्वनाथ कल्प मे लिखते है कि जैसे ये भी जैनों के गतवैभव की साक्षी देते है। इस जगह 'राजा को यह रत्नमयी प्रतिमा जहां प्राप्त हुई वहां ही अंतरिक्ष पार्श्वनाथ की मूर्ति इस तरह बिठाई है कि आकाश उसने मन्दिर बनवा कर अपने नाम का उल्लेख करने मे ही है, जमीन का स्पर्श भी नही ऐसा मानने मे आता वाला नगर बसाया"। यानी मूर्ति प्राप्त होने का और है। इसलिए अंतरिक्ष कहते है। यह प्रतिमा राजा एल ने राजा के मन्दिर बनवाने का एक ही स्थान है।
एलोरा से लाई और वह इसको एलिचपुर ले जा रहा था। (२) दूसरा मत यह है कि-मूलनायक मूर्ति एल मगर भगवान की आज्ञा के खिलाफ राजा ने पीछे देखा, राजा को एलोरा के एक झरे मे मिली, जहा उसका कुष्ट इसलिए रास्ते में शिरपुर की जगह वह रुक गई। राजा रोग गया । वहा राजा ने कुड वनवाया और यह प्रतिमा ने वहा ही मन्दिर बनवाया। एलिचपुर से जाने को उद्यत हुई। लेकिन शिरपुर के वही किताब पृ. ४६४ पर लिखा है-'प्रतरिक्ष स्थान पर राजा ने शकित भाव से पीछे देखा तो, प्रतिमा पार्श्वनाथ शिरपुर का मन्दिर जैनों के गत वैभव की साक्षी वहाँ ही रुक गई। देखो-(१) श्वेताम्बर मुनि जिनचंद्र देते है। राजा एल ने यह प्रतिमा एलोरा से लायी थी सूरि (वि. स. १८३६ ता० ३१ मार्च १७६६) सिद्धपुर और वह इसको एलिचपुर ले जा रहा था । आदि ।" पट्टण में जब थे तब उन्होंने एक काव्य रचा था। उसमे इस तरह अनेक उल्लेख दिये जा सकते है । मुक्तावे बताते हैं, "प्रतरिक्ष प्रभु मेरे हृदय मे वास करते है। गिरि यह स्थान दिगम्बर जैन सस्कृति का और इतिहास ये त्रिलोकीनाथ है। यह मूर्ति खरदूषण राजा की पूजा का जैसा स्थान है वैसा ही एलोरा यह दिगम्बर जैन के लिए बनायी गई थी। बाद में यह मूर्ति जल मे ११ सस्कृति का केन्द्र स्थान है। खुद श्वेताम्बर मुनि जयसिह लाख साल रहकर प्रगट हुई।
मूरि (शके ९१५) लिखते है-'एलउर मे (एलोरा मे) जब एलिचपूर के एक राजा को कुष्ट रोग हुआ था दिगम्बर बसही है। तब जहाँ यह मूर्ति थी वहाँ के जल से स्नान करने से
जिस ईल (एल) राजा ने अनंत द्रव्य खर्चा कर राजा.का रोग दूर हो गया था। राजा का शरीर सुवर्ण
एलोरा में दिगंबर जैन संस्कृति सम्पन्न मन्दिर निर्माण समान कातिमान हुआ था। वह स्थान एलोरा है। राजा
किया, उसी श्रीपाल एल राजा द्वारा यहाँ स्थापना की हुई यह मूर्ति एलोरा से प्राकाश में से एलिचपुर ले जा रहा यह प्रतिमा दिगबर ही है, यहां और कहने की आवश्यकता था। लेकिन मूर्ति रास्ते मे शिरपुर की जगह रुक गई। न यह भगवान पार्श्वनाथ सबके लिए आकर्षण है ।" आदि।
सन् १९०८ मे श्वेताम्बरी लोगो ने इस मूर्ति को लेप (२) मि. फर्ग्युसन साहेब; 'दि हिस्ट्री ऑफ इण्डियन :
१. इस मूर्ति के कारण एलोरा से एल राज्य का सम्बन्ध १. रन्ना पडिमा अदळूण अधिईए गते तत्थेव सिरीपुरं नहीं तो, वहां मूल लेण्या (गुफा) निर्माण करने से नाम नयर निभ्रनामो वलक्खिनं निवेशिभं ।
वहां का नाम एल उर पड़ा है।
हिस्टी ऑफ इण्डियन
१. इस मूति क का
(गफा) निर्माण