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________________ श्री गुरुवर्य गोपालदासजी वरैया पं० माणिकचन्द जी न्यायाचार्य इम शताब्दी मे श्रीमान् गुरु गोपालदाम जी बडे किया था । लगन के पक्के धनी थे । अनुभवी गणनीय विशिष्ट विद्वान हो चुके है। मैं मंवत् गुरुजी जैन सिद्धान्त के तो अगाध तलस्पर्शी अधि(विक्रम) १९६४ मे बनारस अध्ययनार्थ गया था उससे कारी पण्डित थे। एक बार त्रिलोकमार पढाते हुए उनसे २० वर्ष प्रथम काशी में ब्राह्मणों में प० बालशास्त्री जी ऊध्र्वलोक का पिनप्टि गणित नही लगा। किन्तु दो दिन बड़े भारी विद्वान् विद्यमान थे । वे व्याकरण, न्यायसाहित्य घोर परिश्रम कर पण्डित जी ने पिनष्टि के रेखागरिणत परिष्कार, काव्य प्रादि विषयों के प्रकाण्ड पण्डित थे। को परिपूर्ण हस्तगत कर लिया और तीसरे दिन हम मभी षड्दर्शनों के पारदृश्वा थे । मैं जब बनारस पहूँचा था तब छात्रो को हस्तामलकवत् स्पष्ट समझा दिया । जिम स्वर्गीय पं० बालशास्त्री जी के शिष्य श्री शिवकुमार जी गणित के लिए महाविद्वान प्राचार्य देशीय पण्डित टोडरशास्त्री, दामोदर जी शास्त्री, सीतागम जी शास्त्री, राम- मलजी मा० ने भी त्रिलोकसार भाषा टीका मे लिख दिया मिश्र जी शास्त्री, तात्या जी शास्त्री, गगाधर जी शास्त्री, है कि यह प्रकरण मेरी समझ में नीका नही पाया है। देवीप्रसाद जी शुक्ल प्रति विद्वान् बनारस मे ख्याति गोम्मटसार, त्रिलोकसार, पंचाध्यायी के तो पण्डित जी प्राप्त थे। ये सब राज्यमान्य महामहोपाध्याय थे। एक से अन्तः प्रवेशी विद्वान् थे ही, जन न्याय के भी प्रकाण्ड एक प्रखर पण्डित थे। इनका परस्पर शास्त्रार्थ बडा रुचि- विद्वान् ५। प्रमाण, प्रामाण्य, प्रमाण फल, स्वत प्रामाण्य कर होता था। परत. प्रामाण्य का मच्चा विवेचन करते थे । उमी प्रकार ५०-५५ वर्ष प्रथम पण्डित प्रवर निःस्वार्थ सेवी गोपालदास जी हा थे। उनके शिप्य पण्डित बन्शीधर जी पण्डित जी ममाज से भेट, दक्षिणा नहीं लेते थे। (बेरनीवासी), प. खूबचन्द्र जी उमरावसिह जी, ५० यद्यपि उनकी आर्थिक स्थिति प्रशस्त नहीं थी फिर भी मक्खनलाल जी, पं० वशीधर जी, (महरौनी), ५० देवकी जैन बन्धुओं से स्वभावत: उनने एक पैसा नहीं लिया। नन्दन जो और मै ऐसे पाठ, दस विद्वान् इस जैन धरा एक बार बम्बई समाज से मार्ग व्यय जो दिया गया था मण्डल को अलकृत कर चुके थे। पण्डितजी को बुद्धि बड़ी उममे दस पाने अधिक प्रा गये थे। वे मनीआर्डर करके पनी थी। वे यद्यपि चोटी बाँध कर, आग्वे पानी से भिगो बम्बई वापिस भेज दिए गए। पण्डित जी यदि चाहते तो कर, घडी में अलार्म लगा कर, व्याकरण न्याय की पुस्तकों ५०.४० हजार रुपये उनको जैन धनिकों से अनायास मिल को गुरु सन्मुख खोलकर एकाग्र बैठकर चार, छ वर्ष तक मकते थे, किन्तु पण्डित जी ने एक पैसा नही लिया। एक न्याय, व्याकरण, साहित्य, धर्मशास्त्र नही पढे थे फिर भी बार एक पण्डित जी को बाहर के दो भाई लिवाने पाये। प्रतिभा नितान्त तीक्ष्ण थी। क्षयोपशम तीव्र होने से वे कुछ गृह कलह के कारण पण्डित जी घर मे कपड़े नही ले व्याकरण, न्याय, साहित्य विषयो मे भी अन्त -प्रवेश कर पाए । जसा मलिन कुर्ता पहने थे, उसी वेष मे चल दिए, लेते थे। अगाध गम्भीर पण्डित वरेण्य बल्देवदास जी से मुझे भी साथ ले गये थे। इटावा पहुँच कर पण्डित जी ने आगरे में पण्डित जी ने कुछ अध्ययन किया तथा अजमेर नवीन दो कुर्ता बनवाए और दूकानदार को मूल्य २ =) मे प० मोहनलालजी पहाड़े साहब के साथ गुरु जी का फौरन अपनी जेब से निकाल कर दे दिए। तत्रस्थ जैन चर्चा पूर्ण सम्पर्क रहा। मागरेमे स्तोक संस्कृत का अध्ययन बन्धु मेषवत् यो ही देखते रहे, कुछ कहते नही बना निः
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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