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________________ जंन प्रागमों के कुछ विचारणीय शम्ब भोग । वश के करग मे 'उग्गा भोगा राइण्णा'-ऐमा के प्राधार पर हम अपने प्राचीन उल्लेखों एवं मान्यतामों पाठ मिलता है । भोग पशब्द का मूल 'भोज' है। भोजवश को सहमा कैसे झुठला सकते है। महाभारत कालीन प्रसिद्ध वंश है। उत्तराध्ययन१ तथा चाहे फासुप्र शब्द को लीजिए, चाहे नायपुत्त शब्द दशवकालिक२ मे 'भोग' का प्रयोग मिलता है। उत्तरा- को या किमी पौर शब्द को। प्राचीन प्राकृत विशेष नामो ध्ययन के वत्तिकार श्री शातिमूरि ने 'भोग' का सस्कृत के मस्कृत रूपान्तर की कल्पना करते समय बहुत बड़ी रूप 'भोज' किया है३ । श्रीपपातिक (सूत्र १४) मे 'भोग सावधानी की अपेक्षा है। अन्यथा स्वकल्पना प्रेरित मात्र पव्व इया' पाठ है। प्रभयदेवसूरि ने उसका अर्थ भोग शब्द-साम्य की दृष्टि संस्कृतीकरण की प्रवृत्ति से, केवल (मादिदेव का गुरु स्थानीय वश) किया है। यह मूल से एक और अधिक नई भ्रान्ति उत्पन्न करने के अतिरिक्त दूर है। इस प्रकार एक ही शब्द अनेक प्राचार्यों द्वारा और कुछ भी परिणाम नहीं होगा ।" अनेक प्रों में व्याख्यात हुभा है। प० बेचरदास जी नायपुत्त का नागपुत्त रूप करने पर ज्ञात या नाग यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि प्राचार्य हरिभद्र और प्राचार्य 'भगवान महावीर जातपुत्र थे या नागपुत्र ?'- हेमचन्द्र प्रादि प्राचीन बहुश्रुत प्राचार्यों ने भी नायपुत्त पोषक मेरे लेख को मोर सकेत करते हुए ५० बेचदरास का ज्ञातपुत्र ही संस्कृत रूप बनाया है और भनेकत्र उनका जी जीवराजजी दोसी ने लिखा है-"कुछ समय पूर्व ज्ञात नदन के रूप मे उल्लेख किया है। ऐसी स्थिति में अनेकान्त नामक जैन पत्र में, एक जैन मुनि ने नायपुत्त व्यर्थ की निराधार एव भ्रान्त कल्पनामो के प्राधार पर का सस्कृत रूपान्तर नागपुत्र करके श्रमण भगवान महावीर हम अपने प्राचीन उल्लेखों व मान्यतामों को सहमा कैसे को नागवशी प्रमाणित करने का यत्न किया है। यह भला सकते है ?" किन्तु दूसरी पोर फासुप पाद का प्रयत्न जैन और बौद्ध साहित्य तथा ऐतिहासिक परम्परा अनेक बहश्रत प्राचार्यों द्वारा 'प्रासुक' रूप किया गया है, की दृष्टि मे सर्वथा प्रमगत है। जब कि बौद्ध त्रिपिटक उसके स्थान पर पडिनजी 'सर्शक' रूप को उपयुक्त बताते ग्रन्थो के मून में 'दीघ तपस्मी निग्गटो नातपुत्तो' के रूप है। ए 'नातपुत्त' शब्द का मडाई-मृतादी का अर्थ क्या प्रभयदेवमूरी ने प्रामुकप्रयोग हमा है और वह माक्षी रूप मे माज भी निविवाद सोजी नहीं किया किन्न पडिनजी इसका अर्थ याचितरूप में पानी त्रिपिटक मे उपलब्ध है, तब प्राकृत जैनागमो भोजी करना चाहते है और वह उपयुक्त भी लगता है। में प्रयुक्त नातपुत्त का सस्कृत रूप नागपृत्त ममझना मोर इमी प्रकार नायपून का अर्थ यद्यपि अनेक बहुश्रुत भगवान महावीर को इतिहास प्रसिद्ध ज्ञातवा से मबधित प्राचार्यों ने ज्ञानात्र किया है किन्तु वश-इतिहामके अध्ययन न मानकर उनका नागवश से सम्बन्ध जोडना स्पष्ट ही में यह ज्ञात होता है कि वह मगत नही है। इसका प्रतिनिराधार कल्पना नही तो और क्या है? माचार्य हरिभद्र पादन मैं अपने पूर्ववर्ती दो निबन्धो में कर चुका है। प्राचार्य पौर प्राचार्य हेमचन्द्र यादि प्राचीन बहुथुन प्राचार्यों ने अभयदेवमगे भी नाय के मस्त हा के बारे में प्रसदिन भी नायतुत्र का ज्ञातपुत्र ही मस्कृत रूप बताया है। और नहीं थे। उन्होंने प्रोपानिक (मूत्र १४) मे पाये हुए 'णाय' प्रनेका उनका ज्ञात-नदन के रूप से उन्लेख किया है। मटके दो किा है-जान या नाग३ । पत. पाय ऐसी स्थिति में पर्थ की निराधार एवं भ्रान्त कल्पनामों का नागकर निराधार नही है। १. उत्तराध्ययन २३।४३ । ६ रत्नमुनि स्मृति ग्रन्य, प्रागम पोर माया महिन,पृ.१०१ २ दशवकालिक २८ ७ रकमुनि स्मृति अन्य प्रागम और व्याख्या सहित, ३. वृहद्वत्ति , पत्र ४६५ । पृष्ठ १०१। २. वही । ४. प्रौपपातिक वृत्ति, पृष्ठ ५० । ८. भोपपातिक १४ वृत्ति, पृष्ठ ५.: जाता इदाकुवंश५. उत्तराष्पयन बृहद्वति, पत्र ४६५। विशेषभूना नागावा-नागवंशप्रसूताः ।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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