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________________ श्री गुरुवर्य गोपालदासजी वरया स्वार्थ ज्ञानदानी का प्रक्षुण्ण प्रभाव था। पण्डित जी को प्रष्टसहस्री, श्लोकवात्तिक पर्यन्त न्याय ग्रन्थ पढ़ाए । जैन धर्म प्रभावना, शास्त्रार्थ करना, स्याद्वाद प्रचार का अन्य भी पचासों छात्र न्याय, सिद्धान्त ग्रन्थों को पढ़ते रहे। गाढ अनुराग था । नितान्त घोर परिश्रम करके, परीषहे प० जी जिनवाणी के नितान्त श्रद्धालु थे। कभी कभी थी सह कर उन्हे जैनधर्म की पताका ऊची फहराना अभीष्ट १०८ विद्यानन्द प्राचार्य की कठिन पक्तियो को सुनने के था। इटावा के पण्डित पुत्तलाल जी, चन्द्रसैन जी वैद्य लिए अथवा मेरा अध्यापन परीक्षण करने के लिए पाठनादिग्विजयसिह जी, रूपचन्द्र जी वैद्य आदि उत्साही जैन वसर पर बैठ जाते थे। बन्नो ने तत्त्वप्रकाशिनी सभा स्थापित कर रखी थी। पण्डित जी की तीक्षण प्रतिभा न्यायशास्त्रो मे मन्त. उसके द्वारा जीवनर, टेर, अजमेर मादि अनेक स्थानो प्रवेश कर जाती थी भयोsex प्रवेश कर जाती थी, क्षयोपशम तीव जो था। जिनवाणी पर शास्त्रार्थ किए गए तथा जैनमिद्धान्त की उत्कट प्रभा- की प्रभावना की उत्कट भावना जो थी। गोम्मटसार प्रादि वना की गई। के तो वे अन्र्तामी महारथी विद्वान थे ही। ___ प्राद्य परिचय तीन चार वर्ष तक मोरेना मे किराए के मकान मे जोवनेर (जयपुर स्टेट) के ठाकुर साहब विचार गुरु जी सिद्धान्त ग्रन्थो मे गोम्मटसार, त्रिलोकसार, पञ्चाविमा के अनुरागी थे। पार्यसमाजी विचार के थे। ध्यायी को पढाते थे। और मैं प. वंडर वैशाख मम्बत् १९६८ मे ठिकानेदार रईस ने तत्त्वप्रका- मक्खनलाल जी प्रादि को प्रष्टसहस्री, मार्तण्ड, श्लोक शिनी मभा (इटावा) को निमन्त्रित किया । मुझे भी ठोस वातिक पढ़ाता था। और गुरुजी से सिद्धान्त ग्रन्थों का प्रतिभाशाली, विद्वान् श्री प्रजनलाल जी सेठी ने तार अध्ययन भी वशीधर जी प्रादि के साथ करता था। बड़ा देकर ग्रामन्त्रित किया। तदनुसार मैं चावली से जीवनर आनन्द प्राता था। दिन रात अध्ययन, अध्यापन, शास्त्र. पहुँचा। प० गोपालदास जी, सेठी जी, दिग्विजयसिह जी, चर्चा में ही व्यतीत होते थे । पण्डित जी की तीव्र भावना चन्द्रमन जी मन्त्री वहा प्रथमत शास्त्रार्थ में डटे हुए थे। थी कि विद्यालय उन्नति करे और विद्यालय का निज का बडा मुशोभन प्रबन्ध था, वातावरण सन्तोषक था। भोर के व्याख्यान हुए। गुरूजीकी सुकीति विद्वत्ता व्या- पावन तीव्र भावना अवश्य फलवती होती है। पचायत ख्यान शैली पाण्डित्यपूर्ण थी। मुझे भी व्याख्यान देने का विचारानुसार स्थानीय दिगम्बर पाश्वनाथ जैनमन्दिर के अवसर दिया गया। मुझसे गुरू जी भारी प्रसन्न हुए। विशाल अहाते में ही विद्यालय भवन का निर्माण प्रारम्भ मेरे गले मे बाँहे डालकर गुरुजी ने सामोद प्राग्रह किया हो गया । इस कार्य में पण्डितजी को भारी परिश्रम करना कि अब मै तुमको नहीं छोडगा, माथ ही मोरेना ले पडा। उनके अर्थोपार्जन का कार्य भी शिथिल पड गया। चलगा। प. जी बड़े माहसी, पराक्रमी थे। प्रारम्भ करके हट उनके गाढ स्नेहपूर्ण आन्दोलन को मै नहीं टाल सका जाना उनकी प्रकृति में नहीं था। दो तीन वर्ष मे ही और १५ दिन मे पूज्य भाई जी की प्राज्ञा लेकर मोरेना सिद्धान्त विद्यालय भवन पूर्ण बन गया और नवीन भवन में पहुँच जाना मैंने स्वीकार कर लिया। पठनपाठन चालू हो गया। जेठ मुदी वि० सं० १९६८ को मै मोरेना पहुँचा। उस समय मोरेना विद्यालय की कोत्ति प्रशस्त थी उस समय गुरुजी गोम्मटसार की देशावधि मागला को प्रत्येक विद्यालय के छात्र मोरेना अध्ययन की छाप लगपढा रहे थे। पं0 खूबचन्द्र जी, प० वंशीधर जी, प० वाते थे । यों सं० १९७२ मे मोरेना विद्यालय मे २५ छात्र मक्खनलाल जी, पं. उमरावसिंह जी, प० देवकीनन्दन जी ४ अध्यापक (प० मक्खनलाल जी, ५० वशीधरजी महये प्रधान विद्यार्थी थे। दूसरे दिन गुरुजी ने मुझे न्याया- रौनी। प० जगन्नाथ जी शास्त्री और मैं) नियुक्त थे। ध्यापक नियुक्त कर दिया। मैंने मोरेना मे उपयुक्त छात्रो फिर विद्यालय का कार्य बढ़ता ही गया। गुरूजी ने सर्वदा को प्रमेयरत्नमाला, प्राप्तपरीक्षा, प्रमेयकमल मार्तण्ड, से मुझे प्रधानाध्यापक पद पर प्रतिष्ठित किया । कुछ दिन
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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