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________________ 'वैधता और उपादेयता' डा. प्रद्युम्नकुमार जैन स्याद्वाद मिद्धान्त की आलोचना करते हा कतिपय निष्कर्ष की वैधता प्राधार को सापेक्षता का विषय है। ममीक्षको ने कुछ भौडे आरोप भी लगाए. जिनमे से एक वैधता प्राधार-निष्कर्ष सापेक्ष होती है। यहाँ 'गांधी भारतो यही कि 'जैन स्याद्वाद के अन्तर्गत 'यह भी सत्य है' तीय है' बाक्य एक वैध निष्कर्ष के रूप में नहीं बिठाला कि रट लगा कर यह प्रदर्शित करते है कि उन्हे किसी जा सकता, जबकि वही निम्नलिखित तक में वैधरूप में मत्य पर निश्चय नही। वे महा अनिश्चय के शिकार है। कहा जा मकता है - एब जब उन्हे किमी कथन पर निश्चय ही नही, तो फिर (२) सब गुजराती भारतीय है, वे कैसे निर्णय कर सकते है कि जीवन-विकास के लिए और गांधी गुजगती है, क्या उपादेय है। जब उपादयना की उनके समक्ष कोई अत गाँधी भारतीय है। सम्बोधना नही, तो फिर सम्यक् जीवन-प्रणाली की इस प्रकार वैधता की एक निश्चित सीमा है। वह एक सम्भावना कमे और कैसे सद्धर्म की स्थापना भी। उनके ताकिक इकाई में पाबद्ध है । वह अपनी तार्किक इकाई से मनानमार जिम कथन मे अनिश्चय है वह वैध नही हो तदाकार है और उमकी प्रात्मा है। ताकिक इकाइया मकता। जो वैध नही है वह उपादेय नही हो सकता अनन्त है, प्रत वंधता, माम्बोधनिकः अस्तित्व में एक अस्तु, स्याद्वाद उपादेय तत्त्व से रहित है। होते हा भी अस्तित्वगतता के क्षेत्र में अनन्न है। इस अब, पूर्व पक्ष में जो तक प्रक्रिया प्रस्तुत की गई उसे प्रकार प्रत्यक अस्तित्वगत वैध इकाई अपन मे मालिक यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए, तो उसमे दो भिन्न सम्बा- पार यथाथ है। उस मोलिक और यथार्थ का ही यह धनायो को एकार्थक समभन की भल स्पष्ट दिखाई पडगी। परिणाम है कि उपर्युक्त तक म०१ का निष्कर्ष केवल वे दो सम्बोधनाएँ है-वैधता और उपादेयता। क्या वैध उमा तक म वध है, दूमर तक में नहीं । उमा प्रकार तक है ? क्या उपादेय है ?-वे दोनो दो भिन्न-भिन्न प्रत्यय स० २ का निष्कर्ष उसी में वैध है, स०१ मे नहीं। क्षेत्रों के प्रतिनिधि वाक्य है। वैधता का क्षेत्र है न्याय अस्तित्वगत इकाइयों की इसी मौलिक और यथार्थ वैधता (Logic), और उपादेयता का क्षेत्र है नीति (Ethies), की अभिव्यक्ति स्याद्वाद का सिद्धान्त करता है। दोनो मम्बोधनाएँ भिन्न-भिन्न क्षेत्रो में रहती हई भिन्न स्याद्वाद के अनुमार गाँधी मरणशील हे' कथन कथरूप से अस्तित्वगत भी होती है। वैधता उस ताकिक चित बंध या मत्य है, क्योकि उसकी अपनी अस्तित्व गत स्थिति का दूसरा नाम है जो एक न्याय-प्रक्रिया में प्राधार मीमा है। उम भीमा के परे वह मन्य नहीं हो सकता। (Premises) पोर निष्कर्ष (Conclusion) की पारम्प अब इसी वाक्य का विरोधी वाक्य भी निम्नलिखित रिक सगति में उपलब्ध होती है; यथा तार्किक इकाई में कर्थाचत सत्य की काटि में प्राता है . (३) मब यशस्वी प्रात्माएँ अमर है, (१) सब मनुष्य मरणगील है, और, गांधी एक यशस्वी यात्मा है, और गाँधी मनुष्य है; अन , गाँधी अमर है। अतः, गांधी मरणशील है। इम प्रकार स्याद्वाद के अनुसार 'गाँधी मरणशील है' और यहाँ 'गाँधी मरणशील है वाक्य वैध है, क्योकि वह 'गाँधी अमर है' दोनो कथन, यद्यपि निरपेक्ष दृष्टि से ऊपर के दोनो आधार-वाक्यो से सगत है। इस प्रकार विरोधी है किन्तु अपनी-अपनी सापेक्ष इकाइयो में कय
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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