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________________ अनेकान्त का सीधा उल्लेख न करके पं० पाशाधर ने श्लोक ५-२० ब्राह्म मुहूर्त उत्तिष्ठत् परमेष्ठिस्तुति पठन् । को स्वोपज्ञ टीका मे सिताम्बराचार्य की शका के रूप में किंघमः किंकुलश्चास्मि किंवतोऽस्मीति च स्मरन् । प्राय. उन्ही के शब्दो मे उसे उपस्थित करते हुए प्रचार यो. शा. ३-१२२ बतलाया है। यथा उधर सा. घ. में भी इस प्रकरण के प्रारम्भ मे इसी अत्राह सिताम्बराचार्य-भोगोपभोगसाधन यद् द्रव्यं प्राशय का प्रथम श्लोक इस प्रकार प्राप्त होता हैतपार्जनाय यत कर्म व्यापारस्तदपि भोगोपभोगशब्देनोच्यते, बाघ मर्त उत्थाय वक्षपञ्चनमस्कतिः। कारणे कार्योपचारात् । ततः कोटपालादिख रकर्मापि त्या- कोऽहं को मम धर्म: कि व्रत चेति परामृशेत् ।। सा.ध. ६.१ ज्यम् । तत्र खरकर्मत्यागलक्षणे भोगोपभोगवते अङ्गार १२ तदनन्तर योगशास्त्र (३.१२३) में कहा गया जीविकादीन् पञ्चदशातिचारांस्त्यजेत् । तदचारु। है कि पश्चात् स्नानादि से पवित्र होता हृमा घर पर इस प्रकार उक्त खरकर्मों के परित्याग को प्रचार पुष्प, नैवेद्य और स्तुति के द्वारा जिन देव की पूजा करके बतलाकर भी प० माशाधर ने प्रतिजडबुद्धि जनो के प्रति शक्ति के अनुसार प्रत्याख्यान ग्रहण करे और तत्पश्चात् उनके परित्याग को भी स्वीकार कर लिया है। देवालय को जाय। १. योगशास्त्र में श्रावक के १२ व्रतों का वर्णन यही बात सा. घ. में भी (६, ३-५) कही गई है। करके तत्पश्चात् यह कहा गया है कि इस प्रकार उन इस प्रकरण में सा. ध. के निम्न श्लोक योगशास्त्र व्रतों में स्थित होकर जो पुरुष भक्तिपूर्वक सात क्षेत्रो मे के इन इलोकों से काफी प्रभावित हैंधन का परित्याग करता है तथा दीन जनों के लिए भी पाय तितिा नवनि प्रदक्षिणज्जिनम । दयार्द्र होकर दान देता है वह महाश्रावक कहलाता है२।। पुष्पादिभिस्तमभ्ययं स्तवनसत्तमः स्तुयात् ॥ यो. ३-१२४ इसी प्रकार सा. ध. मे भी कहा गया है कि जो मालिताडिघ्रस्तवान्तः प्रविश्यानन्दनिर्भरः। गहस्थ उक्त व्रतों का परिपालन करता हुमा गुणवानो की त्रिः प्रदक्षिणयन्नत्वा जिनं पुण्याः स्तुतीः पठन् ।। सा. ६.६ वैयावृत्ति करता है, दीन जनों का उद्धार करता है, और + इस (मागे छठे अध्याय में वणित) दिनचर्या का प्राच. ततो गुरूणामभ्यर्ण प्रतिपत्तिपुरःसरम् ।। रण करता है; वह महाश्रावक होता है । विवधीत विशुद्धात्मा प्रत्याख्यानप्रकाशनम् ॥ यो ३-१२५ ११ तत्पश्चात् दोनों ही ग्रन्थों मे जो श्रावक की प्रर्यापथसशुद्धि कृत्वाभ्यय जिनेश्वरम् । दिनचर्या का वर्णन किया गया है वह बहत कछ समानता श्रुतं सूरि च तस्याप्रे प्रत्याख्यान प्रकाशयेत् ॥ सा ६.११ + + + रखता है। इस प्रसंग में योगशास्त्र में सर्वप्रथम यह श्लोक विलास-हास निष्ठयूत-निद्रा-कलह-दुष्कया। उपलब्ध होता है जिने द्रभवनस्यान्तराहारं च चतुविषम् ॥ यो. ३.८१ १ इसी से उन्होंने श्लोक ५, २१-२२ में उक्त १५ खर- मध्ये जिनगृह हास विलासं दुःकथा कलिम् । कर्मो को नामनिर्देशपूर्वक सग्रहीत कर लिया है। निद्रां निष्ठयतनाहारं चतुर्विधमपि त्यजेत् ॥ सा. ६-१४ योगशास्त्र में इन खरकर्मों का पृथक-पृथक् निरूपण + नामनिर्देशपूर्वक श्लोक १००.११४ में किया गया है। ततः प्रतिनिवृतः सन् स्थान गत्वा यथोचितम् । २ एव व्रतस्थितो भक्त्या सप्तक्षेच्या धन वपन् । सुषीधर्माविरोधेन विदधीतार्थचिन्तनम ॥ यो. ३-१२८ दयया चातिदीनेषु महाधावक उच्यते ।। यो. ३-१२० ततो यथोचितस्थान गत्वाऽऽधिकृतान सुधीः । एवं पालयितु व्रतानि विदधच्छीलानि सप्तामला- प्रषितिष्ठेद् व्यवस्येद्वा स्वय धर्माविराषतः॥ सा. ६-१५ न्यागर्णः समितिष्वनारतमनोदीप्राप्तवाग्दीपकः । + + + वैयावत्यपरायणो गुणवता दीनानतीवोदर- ततो माध्याह्निकी पूजां कुर्यात् कृत्वा च भोजनम् । श्चर्या देवसिकीमिमां चरति य. स स्यान्महाश्रावक.॥ तद्विद्भिः सह शास्त्रार्थरहस्यानि विचारयेत् ।। यो. ३-१२६ __ सा. घ. ५-५५ विक्षम्य गुरुसब्रह्मचारियोऽथिभिः सह ।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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