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________________ सागारधर्मामत पर इतर भावकाचारों का प्रभाव + जिनाममरहस्यानि विनयेन विचारयेत् ॥ सा. ६-२६ । प्रचुर ग्रन्थों का परिशीलन किया था। उनके द्वारा जैसे पनेक मौलिक ग्रन्थो की रचना हुई है वैसे ही अनेक ततश्च संध्यासमय कृस्था देवानं पुनः । ग्रन्थों पर टीका भी की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ सागारकृतावश्यककर्मा च कुर्यात् स्वाध्यायमुत्तमम् ।। धर्मामृत-जो धर्मामृत ग्रन्थ का पूर्व भाग है-इसी न्याय्य काले ततो देव-गुरुस्मृतिपवित्रितः। कारण से एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ बन सका है। श्रावक के निद्रामल्पामुपासीत प्रायेणाब्रह्मवर्जकः ।। दरा अनुष्ठंय प्रायः सभी क्रियाप्रो का इसके मूल भाग मे निद्राच्छवे योषिवङ्गसतत्त्व परिचिन्तयेत् । या उसकी स्वोपज्ञ भव्य कुमुद-चन्द्रिका टीका मे समावेश स्थूलभद्राबिसाधनां तन्नित्ति परामृशन्॥यो.शा.३,१३०-३२ हुमा है। कुछ विषयविवेचन या किसी विषय का विस्तार सायमावश्यकं कृत्वा कृतदेव-गुरुस्मृतिः । यहां ऐसा भी उपलब्ध होता है जो प्रायः प्रप्रामाणिक या न्याय्यकालेऽल्पशः स्वप्याच्छक्त्या चाबह्म वर्जयेत् ।। माम्नायविरुद्ध माना जाता है। पर उसका भी वर्णन निद्राच्छेदे पुनश्चित्तं निर्वे देनंव भावयेत् । पं० प्राशाधर ने अपनी स्वतन्त्र बुद्धि से नही किया है, सम्यग्भावितनिर्वेदः सद्योनिर्वाति चेतनः ।। सा.ध. ६,२७-२८ किन्तु जैसा कि आप ऊपर देख चुके है पूर्व ग्रन्थो कात्यक्तसंगो जोर्णवासा मलक्लिन्नकलेवरः। चाहे वे दिगम्बर रहे हो या श्वेताम्बर-माश्रय लेकर भजन माधुकरी वृत्ति मुनिचा कदा श्रये ।। यो. ३-१४२ उन्होने उनका वर्णन किया है। बिना प्रन्थाधार के उन्होने कदा माधुकरी वृतिः सा मे स्यादिति भावयन् । स्वतन्त्रता से कुछ भी नही लिखा, ऐसा मुझे अब तक के यथालाभेन सन्तुष्टः उत्तिष्ठत् तनुस्थिती ।। सा. ६-१७ अध्ययन से प्रतीत होता है। कुछ भी हो, श्रावकाचार + + विषयक यह विस्तृत ग्रन्थ विवेकी पाठको के लिए उपशत्री मित्र तणे स्त्रंणे स्वर्णेऽश्मनि मणो मृदि। योगी ही सिद्ध हुमा है। मोक्ष भवे भविष्यामि निर्विशेषमतिः कदा ॥ यो. ३.१४६ पुरेऽरण्य मणौ रेणो मित्र शत्रौ सुखेऽसुखे । २ क-जैसे भाड़ा देकर कुछ काल के लिए वेश्या को जीविते मरणे मोक्ष भवे स्यां समषीः कदा ! सा. ६.४१ स्वस्त्री मान उसके सेवन मे ब्रह्मचर्याणुव्रत को भग इनके अतिरिक्त और भी कितने ही श्लोक है जो न मानकर प्रतिचार मानना (४-५८ की स्वोपज्ञ अर्थ और शब्दों से भी समानता रखते है। . टीका) । इसके लिए प्राधारभूत हेमचन्द्र सूरि के उपसहार योगशास्त्र का स्वोपज्ञ विवरण रहा है (३.६४) । पण्डितप्रवर प्राशाधर मस्कृत मोर प्राकृत उभय प्रायः उसी के शब्दों में प० माशाधर ने उक्त प्रतिभाषामों के असाधारण विद्वान् होते हुए सिद्धान्त, न्याय, चार का विशदीकरण किया है। उसका इस प्रकार व्याकरण, काव्य और प्रायुर्वेद प्रादि अनेक विषयो मे पारं. का स्पष्टीकरण प्रावश्यकचूणि भोर श्रावकप्रज्ञप्ति गत थे। उन्होने अपने समय में उपलब्ध इन विषयो के ग्रादि अन्य भी श्वे. ग्रन्यो में उपलब्ध होता है। १ उन्होंने कितने ही शिष्यों को व्याकरण, न्याय और ब-नीराजनाविधि मे गोमय प्रादि के विधान काव्य प्रादि विषयों को पढ़ाकर गणनीय विद्वान् का उल्लेख (६-२२)। इसका प्राधार उपासकाध्ययन का निम्न श्लोक रहा हैबनाया था। यथायो द्वारख्याकरणाधिपारमनयच्छ श्रूषमाणान् न कान देहेऽस्मिन् विहिताचंने निनदति प्रारब्धगीतध्वनापटुतर्कीपरमास्त्रमाप्य न यत. प्रत्यथिनः केऽक्षिपन् । वातोटी: स्तुतिपाठमङ्गलरवैश्चानन्दिनि प्राङ्गणे । चरः केऽस्खलित न येन जिनवाग-दीप पथि ग्राहिताः मृत्स्ना-गोमय-भूति-पिण्ड-हरितादर्भ-प्रसूनाक्षतपीत्वा काव्य-सुधां यतश्च रसिकेवापुः प्रतिष्ठान के। रम्भोभिश्च सचन्दनैजिनपतेर्नीराजानां प्रस्तुवे ।। मन.प. प्रशस्ति उपा. ५३६, पृ०२३६
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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