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आत्म-विद्या क्षत्रियों की देन
मुनि श्री नथमल
प्रात्म-विद्या की परम्परा
थे। उनके प्रथम जिन होने की बात इतनी विश्रुत हुई ब्रह्म विद्या या प्रारम-विद्या भवैदिक शब्द है। मुण्ड- कि प्रागे चलकर प्रथम जिन उनका एक नाम बन गया। कोपनिषद के अनुसार सम्पूर्ण देवतामों में पहले ब्रह्मा श्रीमद् भागवत से भी इसी मत की पुष्टि होती है। वहा उत्पन्न हपा। वह विश्व का कत्ती पोर भुवन का पालक बताया गया है कि वासूदेव ने प्राठवां अवतार नाभि पौर था। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को समस्त विद्यानों मरुदेवी के वहां धारण किया। वे ऋषभ रूप में अवतरित की प्राधारभूत ब्रह्म-विद्या का उपदेश दिया। अथर्वा ने हुए और उन्होने सब पाश्रमों द्वारा नमस्कृत मार्ग दिखअंगिर को, अंगिर ने भारद्वाज-सत्यवह को, भारद्वाज सत्य- लाया । इसलिए ऋषभ को मोक्ष-धर्म की विवक्षा से वह ने अपने से कनिष्ठ ऋषि को उसका उपदेश दिया। वासुदेवांश कहा गया७ । इस प्रकार गुरु-शिष्य के कम से वह विद्या मंगिरा ऋषि
ऋषभ के सौ पुत्र थे। वे सबके सब ब्रह्म-विद्या के को प्राप्त हुई।
पारगामी 2८ । उनके नौ पुत्रों को प्रात्म-विद्या-विशारद वरदारण्यक में दो बार ब्रह्म-विद्या की वंश-परम्परा भी कहा गया है। उनका ज्येष्ठ पुत्र भरत महायोगी बताई गई है। उसके अनुसार पौतिभाष्य ने गौपवन से ..- .. ब्रह्म-विद्या प्राप्त की। गुरु-शिष्य का क्रम चलते-चलते ४. श्री जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्षस्कार २, सू०३० अन्त में बताया गया है कि परमेष्ठी ने वह विद्या ब्रह्मा उसहे णामं परहा कोसलिए पढमराया पढमजिणे से प्राप्त की । ब्रह्मा स्वयंभू हैं। शंकराचार्य ने ब्रह्मा का पढमकेवली पढमतित्थकरे पढमधम्मवरचक्कवटी मर्थ हिरण्यगर्भ किया है। उससे मागे प्राचार्य-परम्परा समुप्पज्जित्थे। नहीं है, क्योंकि वह स्वयंभू हैं३ ।
५. कल्पसूत्र १६४ मुण्डक और बृहदारण्यक का क्रम एक नहीं है। उसभेणं कोसलिए कासवगुत्ते णं तस्स ण पच नाममुण्डक के अनुसार ब्रह्म-विद्या की प्राप्ति ब्रह्मा से अथर्वा
धिज्जा एवमाहिज्जंति, तंजहा-उसमे इ वा पढमको होती है भोर बृहदारण्यक के अनुसार वह ब्रह्मा से राया इ वा पढमभिक्खाचरे इ वा पढमजिणे इ वा परमेष्ठी को होती है। ब्रह्मा स्वयंभू है इस विषय मे ६. श्रीमद्भागवत, स्कन्ध १, अध्याय ३, श्लोक १३ दोनों एक मत हैं।
प्रष्टमे मेरुदेव्यां तु, नाभेर्जात उरुक्रमः। जैन दर्शन के अनुसार मात्म-विद्या के प्रथम प्रवर्तक दर्शयन् वमंधीराणां सर्वाश्रम नमस्कृतम् ।। भगवान् ऋषभ हैं। वे प्रथम राजा, प्रथम जिन (महत्), ७. श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ११, अध्याय २, श्लोक १६ प्रथम केवली, प्रथम तीर्थकर, मोर प्रथम धर्म-चक्रवर्ती तमाहुर्वासुदेवाश, मोक्षधर्मविवक्षया । १. मुण्डकोपनिषन् १।११०२
८. श्रीमदभागवत, स्कन्ध ११, म. २, श्लोक १६ २. बृहदारण्यकोपनिषद् २।६।१४।६।१-३
प्रवतीर्ण सुतशतं, तस्यासीद्, ब्रह्मपारगम् ॥ ३. बृहदारण्यकोपनिषद् भाष्य, २।३।६, पृ० ६१८ ६. श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ११, म० २, श्लोक २०
परमेष्ठी विराट् ब्रह्मणो हिरण्यगर्भात् ततः परं नवाभवन् महाभागाः, मुनयो पर्थशंसिनः । प्राचार्य परम्परा नास्ति ।
श्रमणा वातरशनाः, प्रात्म-विद्या विशारदाः ॥