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________________ सागारधर्मामृत पर इतर धावकाचारों का प्रभाव १५९ अन्नं प्रेत-पिशाचाद्यः संचरद्भिनिरंकुशः। है, जो यथाक्रम से इन इलोकों में देखा जा सकता हैउच्छिष्ट क्रियते यत्र तत्र नाचादिनात्यये । यो.शा. ३.४८ २, ४-५ व ३-११, २, ६-१० व ३-१२; २-१२, २-११ ७ पं० माशाधर ने दिनके प्रारम्भ के दो और मम्त के व ३-१३, २-१३ व ३-१४, ५-१७; ३-१४; २, दो अन्तर्मुहूतों को छोड़कर दिन में भोजन का विधान १४-१५ तथा ४, २४-२६, व ३-१५; ५-१८ व ३.११। किया है (४-२९) । इसी प्रकार हेमचन्द्राचार्य ने दिन के योगशास्त्र में व्रतातिचारो के वर्णन के प्रसंग में प्रारम्भ की दो और पन्त की दो घटिकामो को छोड़कर श्लोक ३-६८ के द्वारा भोजन के प्राषय से भोगोपभोगदिन में भोजन का विधान किया है (३-६३) । दोनों ही परिमाणवत के पांच प्रतिचारों२ का निवेश करके ग्रन्थों में उक्त प्रकार से रात्रिभोजन का परित्याग करने तत्पश्चात श्लोक ३, १००-१०१ के द्वारा उक्त भोगोपवाले गृहस्थ की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि वह भोगपरिमाणव्रत के कर्माश्रित १५ प्रतिचारों का-खरइस प्रकार से अपने जीवन के अर्ध भाग को तो उपवास कर्मों का नामोल्लेख किया गया है। इससे पूर्व के के साथ विता देता है। वे श्लोक इस प्रकार हैं श्लोक ३-६६ के स्वोपज्ञ विवरण में भोगोपभोगपरिमाण योऽत्ति त्यजन् दिनाचतमुहूर्तो रात्रिवत् सदा । का लक्षणान्तर इस प्रकार किया गया हैस वयेतोपवासेन स्वजन्मार्ध नयन कियत् ॥ सा.ध. ४.२९ भोगोपभोगमानस्य च व्याख्यानान्तरम-भोगोपभोगकरोति विरति पन्यो यः सदा निशि भोजनात् । साधन यद् द्रव्यं तदुपार्जनाय यत कर्म व्यापारस्तदपि सोऽधं पुरुषायुषष्य स्याबवश्यमुपोषित: ।। यो.शा. ३.६६ भोगोपभोगशब्देनोच्यते, कारणे कार्योपचारात् । ततश्च सा.प. में भोगोपभोगपरिमाणवत के प्रसंग मे कर्मतः कर्माश्रित्य, खर कठोर प्राणिवाधक यत् कर्म कोटभोग और उपभोग वस्तुपों के प्रमाण के प्रतिरिक्त मांस, पालन गुप्तिपालन बीतपालनादिरूपं तत् त्याज्यम्, तस्मिन खरकर्मत्यागलक्षणे भोगोपभोगवते पञ्चदशा मलानतिमद्य, मधु, सघातवनक, बहुधातजनक, प्रमादजनक, अनिष्ट पोर अनुपसेव्य वस्तुमो का भी त्याग कराया गया चारान् संत्ये जेत् । (पृ. ५६६) है। इस वर्णन के माधारभूत यद्यपि प्रमुखता से रत्न- .. सागारधर्मामृत मे प्राचार्य हेमचन्द्र के उपयुक्त कथन करण्डगत ८५-८६ श्लोक रहे हैं, फिर भी तद्विषयक १ इनमें द्विदल से सम्बद्ध उभय प्रन्यगत श्लोकों में विशेष वर्णन में योगशास्त्र का भी सहारा लिया गया है। बहुत कुछ शब्दसाम्य भी है। यथाइस प्रसंग में वहां प्रथमतः निम्न दो (३, ६-७) श्लोक प्रामगोरससपृक्त द्विदल पुष्पितोदनम् । उपलब्ध होते हैं दध्यहतियातीत कुथितान्न ब वर्जयेत् ॥ यो. ३-७ मच मांसं नवनीतं मधुम्बरपञ्चकम् । पामगोरससपृक्त द्विदलं प्रायशोऽनवम् । अनन्तकायमझातफलं रात्री च भोजनम् ॥ वर्षास्वदलित चात्र पत्रशाक च नाहरेत् ॥ सा. ५-१८ पामगोरससंपृक्तं विवलं पुष्पितीवमम् । पुष्पितौदन पौर दिनदयातीत दही का परित्याग सा. बध्यहतियातीत कुथितान्न च वर्जयेत् ॥ घ. (३-११) में निम्न श्लोक द्वारा कराया गया हैइन श्लोकों में निर्दिष्ट कम से वहां प्रागे मद्य का सन्धानकं त्यजेत् सर्व दधि-तक यहोषितम् । वर्णन ८-१७, मांस का वर्णन १५-३३, नवनीत का काजिकं पुप्पितमपि मद्यव्रतमलोऽन्यथा । ३४-३५, मधु का ३६-४१, उदुम्बर फलों का ४२-४३, २ उभय ग्रन्थगत वे पतिचारविषयक श्लोक भी बहत अनन्तकायका ४-४६, प्रज्ञात फल का ४७, रात्रिभोजन कुछ समानता रखते हैं। यथाका ४८-७० तथा भामगोरससंपृक्त द्विदल, पुष्पित प्रोदन सचित्तस्तेन सम्बद्धः सन्मियोऽभिषवस्तथा । व दो दिन बाद के दही का वर्णन ७१-७२ श्लोकों मे दुष्पक्वाहार इत्येते भोगोपभोगमानगाः ॥ यो. ३-६८ किया गया है। सचित्तं तेन सम्बद्धं सम्मिश्र तेन भोजनम् । इन सबका वर्णन सा. घ. में भी यत्र तत्र किया गया दुष्पक्वमप्यभिषव भुजानोऽत्येति तद्वतम् ॥सा. ५-२०
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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