SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० अनेकान्त ५०, व्रतस्थज्ञानवृद्धानां पूजकाः-५४) ३. सद्गी:१ (प्रवर्ण यह समाधान योगशास्त्र में श्लोक ३-३३ की स्वो. वादी न क्वापि-४८), ४ अन्योन्यगुणं त्रिवर्ग भजन् पज्ञ वृत्ति में निम्न श्लोक के द्वारा किया गया है(अन्योन्याप्रतिबन्धेन त्रिवर्गमपि साधयन-५२), ५ तद• यस्तु प्राण्यङ्गमात्रत्वात् प्राह मांसोदने समे । हंगृहिणी-स्थानालयः (कुल-शीलसमैः सार्ध कृतोद्वाहोऽन्य- स्त्रीत्वमात्रान्मात-पत्न्योः स कि साम्यं न कल्पयेत् ॥ गोत्र:-४७, मनतिव्यक्त-गुप्ते च स्थाने सुप्रातिवेश्मिके। पृ. ४७६-१२ ४ उक्त दोनों प्रन्थों में पांच उदुम्बर फलों के नाम अनेकनिगमद्वारविजितनिकेतनः।।४६, उपप्लुनस्थानं त्यजन् इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये है-५०), ६ ह्रीमयः (सलज्जः-५५), ७ युक्ताहार-विहार: पिप्पल, उदुम्बर, प्लक्ष, वट और फल्गु (फल्गुरत्र (मजीणे भोजनत्यागी काले भोक्ता च सात्म्यत २-५२, काकोदुम्बरिका-स्वो. टीका) । सा. ध. २-१३ प्रदेश-कालयोश्चर्या त्यजन्-५४), ८ पार्यसमितिः (कृतसंगः सदाचारः-५०), प्राज्ञः (बलाबल जानन्-५४), यो. उदुम्बर, वट, प्लक्ष, काकोदुम्बरिका और पिप्पल । यो. शा. ३-४२॥ दीर्घदर्शी विशेषज्ञः-५५), १० कृतज्ञ: (कृतज्ञः-५५), ५ रात्रिभोजन प्रकरण में पं० पाशाधर ने जिस ११ वशी (वशीकृतेन्द्रियग्राम.-५६), १२ धर्मविवि वनमाला का उदाहरण दिया है (४-२६) वह योगशास्त्र शृण्वन् (शृण्वानो धर्ममन्वहम्-५१), १३ दयालु के निम्न श्लोक में इस प्रकार उपलब्ध होता है(सदय --५५), १४ अघभी. (पापभीरुः-४८)। श्रूयते ह्यन्यशपथाननादृत्येव लक्ष्मणः । ३ पागे (२-१०) प्राणी का अंग होने से मूग-उड़द निशाभोजनशपयं कारितो वनमालया ॥३-६८ भादि अन्न के समान मांस का भी भक्षण करना अनुचित यहां सा. ध. में योगशास्त्र के 'प्रन्यशपथान' पौर नहीं है, इस प्राशंका के परिहार मे प० प्राशाधर ने पत्नी कारितो' पद जैसे के तैसे लिए गये है। पौर माता का उदाहरण देकर मास भक्षण के अनौचित्य ६ इसी प्रकरण मे प० प्राशाधर ने रात्रिभोजन को को सिद्ध किया है। जलोदरादि रोगों का उत्पादक और प्रेतादि के द्वारा .........तस्थाश्च ते ज्ञानवृद्धाश्च, तेषां पूजकः। उच्छिष्ट बतलाया है (४-२५)। इस श्लोक की स्वो. पूजा च सेवाजल्यासनाभ्युत्थानादिलक्षणा। (यो. टीका में वे उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार करते हैंशा. स्वो. टीका पृ. १५७) । तत्र यूका भोजनेन सह भुक्ता जलोदरं करोति, १ सद्गी-मती प्रशस्ता परावर्णवाद-पारुष्यादिदोष- कोलिका कुष्ठम्, मक्षिका दिम्, मदिगका मेदा [मेधा] रहिता गीर्वाग यस्यासौ सदगी. । (सा.ध. स्वो. टीका) हानिम्, व्यजनान्त पतितो वृश्चिकस्तालुव्यथाम, २ योगशास्त्र में इस इलोक (१-५२) के स्वो. विवरण मे कण्टका: काष्ठखण्डं वा गलव्यथाम्, बालश्च गले लग्नः 'पानाहारादयो.....' इत्यादि श्लोक द्वारा 'सात्म्य' स्वरभङ्गम् । इत्यादयो दृष्टदोषा सर्वेषां प्रतीतिकरा.। का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है। वह श्लोक पं० इस स्पष्टीकरण के प्राधारभूत योगशास्त्र के निम्न श्लोक रहे हैमाशाधर के द्वारा भी सा. ध. के छठे अध्यायगत मेषां पिपीलिका हन्ति यूका कुर्याज्जलोदरम् । २४वें श्लोक को स्वो. टीका में उद्धृत किया गया है। कुरुते मक्षिका वान्ति कुष्ठरोगं च कोलिकः ।। इसके अतिरिक्त सा. ध. मे इस श्लोक की स्वोपज्ञ कण्टको दाहखण्डं च वितनोति गलम्यपाम् । टीका के नीचे जो सर्वत्र शुचयो', 'लोकापवादभी जनान्तणिपतितस्तालु विष्यति वृश्चिकः॥ रुत्वं': 'यस्य त्रिवर्गशून्यानि'; 'पादमायानिधि विलानश्च गले वालः स्वरभङ्गाय जायते । कुर्यात्'; पायाधं च नियुजीत' और 'यदि सत्सग इत्यादयो दृष्टदोषाः सर्वेषां निशि भोजने ॥ निरतो' इत्यादि श्लोक दिये गये हैं वे योगशास्त्र के यो. शा. ३,५०-१२ स्वो. विवरण में कमसे पृ. १४६, १४६, १५४, १५१, उक्त रात्रिभोजन को प्रेतादि से उच्छिष्ट निम्न १५१ और १५० पर उपलब्ध होते हैं। श्लोक में कहा है
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy