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________________ अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान परमानन्द जैन शास्त्री जगजीवन ने सं० १७०१ में बनारसी विलास का प्रापने पिता और कुटुम्बियो द्वारा मनुपालित धर्म का ही संकलन किया था। प्रापके अनेक पद उपलब्ध होते हैं। प्राचरण करते थे। मापने हीरानन्द जी के साथ एकीभाव स्तोत्र मादि का देवयोग से आपके पिता का सं० १७४२ में प्रापकी पद्यानुवाद किया था। आपके पद बड़े सुन्दर और भाव लघुवय मे अचानक देवलोक हो गया। उस समय मापकी पूर्ण हैं। यहां उनका एक पद पाठकों के ज्ञापनार्थ दिया अवस्था नौ वर्ष की थी, पिता के प्राकस्मिक वियोग का जाता है जिसमें जगत मौर जीवन की अनित्यता का प्रापके जीवन पर विशेष प्रभाव पड़ा। और गृहस्थी का वर्णन है। सब कार्य-भारस्वरूप प्रतीत होने लगा। परन्तु फिर भी जगत सब दीसत घन की छाया। प्रात्मीय जनों और दूसरे धर्मात्मा सज्जनों के सहयोग पुत्रकला मित्र तन संपति, उदय पुदगल जुरि पाया। से कुछ अपना कार्य करते हुए भी शिक्षा की पोर अग्रसर भव-परिनति वरषागम सोहै, प्रास्त्रव-पवन बहाया ॥१॥ होते रहे । स० १७४६ मे पं० विहारीदास और मानसिंह इन्द्रिय विषय लहरि तड़िता है, देखत जाय दिलाया। के उपवेश से कवि का झुकाव जैनधर्म की पोर हपा पौर राग दोष वगु पकति वीखति, मोह गहल घर राया । उनकी प्रास्था जैनधर्म पर जम गई । निजसंपति रत्न प्रय गहिकर, मुनिजन नर मन भाया। सहज अनंत चतुष्टय मंदिर, जगजीवन सुख पाया ।। ___ सवत् १७४८ में १५ वर्ष की अवस्था में धानतराय जी का विवाह हो गया। पौर गृहस्थ जीवन की सुदृढ जगजीवन द्वारा हीरकवि के साथ एकीभाव स्तोत्र तथा सांकलों से वे प्राबद्ध हो गये । कवि के सात पुत्र पौर 'चतुर्विशतिका' का पद्यानुवाद भी मिलकर बनाया हुमा तीन पुत्री थी। १६ वर्ष की अवस्था तक कवि का उपलब्ध है । यदि घागरा और आस-पास के शास्त्र-भडारो झुकाव विषय-भोगों की भोर रहा, किन्तु सत्समागम का का अन्वेषण किया जाय तो सभव है प्रापके सम्बन्ध में परित्याग नहीं किया, परिणाम स्वरूप कवि जैन सिद्धान्त अनेक ज्ञातव्य प्राप्त हो सकेगे । के मर्मज्ञ विद्वान बन गये। वे जैनधर्म के सिद्धान्तों को जीवन-परिचय सरल एव सुबोध भाषामें समझाते थे । कवि ने सं. १७५२ बारहवे कवि द्यानतराय है। यह प्रागरा के निवासी मे १७८३ तक लगभग एक सौ रचनाएं रची हैं । और थे । अापके पूर्वज लायलपुर से प्राकर आगरा मे बस गये ३२३ भक्तिपूर्ण, उपदेशक, प्राध्यात्मिक गीतों (पदो) थे। प्रापका कुल अग्रवाल और गोत्र गोयल था। कवि की रचना की है। कवि ने लिखा है कि संवत् १७७५ में के पितामह (दादा) का नाम वीरदास था और पिता मेरी माता ने शील बुद्धि ठीक की। और सं० १७७७ मे का नाम श्यामदास । कवि का जन्म संवत् १७३३ मे वे सम्मेद शिखर की यात्रार्थ गई और वहीं पर हा था। प्रापका पालन-पोषण बड़े यत्न से किया गया परलोकवासिनी हुई। कवि ने सं० १७८३ के कार्तिक और प्रारंभिक शिक्षा भी मिली। उस समय जैनधर्म को महीने की शुक्ला चतुर्दशी को देवलोक प्राप्त किया। जानते हुएभी प्रापको उस ओर रुचि नहीं थी। इस कारण : २ सत्रह सय तेतीस जन्म व्याले पिता मनं । १. विशेष परिचय के लिये देखें भने. वर्ष ११ कि.४.५ अटताले व्याह सात सुत सुता तीन जी।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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