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________________ १७० अनेकान्त कवि ने जैनधर्म के सिद्धान्तों का मनन कर और परिताप से उसका मानस विकृत हो जाता है परेशानी में प्रात्म-सौन्दर्य के अनुभव को ससार के सामने इस ढंग से जीवन विताना पड़ता है-उसे कोई नही पूछता। और रखा है, जिससे प्रान्तरिक वैभव का परिज्ञान सहज ही उसे धर्म-कर्म भी नही रुचता। कवि कहता है कि वह रुजहो जाता है। कवि की कृतियां मानव हृदय को स्वार्थ गार एक धर्म करने से पूरा हो जाता है :मम्बन्धों की संकीर्ण ना से ऊपर उठाकर लोक कल्याण की रोजगार विना यार यारसा न कर प्यार, भावभूमि पर ले जाती हैं, उससे मनोविकारों का परि. रोजगार बिना नार नाहर ज्यों घर है। कार हो जाता है-चित्त शुद्धि हो जाती है । इन्द्रिय रोजगार बिना सब गण तो विलाय जायं, विषय-विकारों का विश्लेषण कवि की प्रतिभा का द्योतक रोजगार म नौं च । है। मानव हृदय के रहस्यों में प्रवेश करने की उनमे रोजगार बिना कछ बात बनि प्राव नाहि, अतल क्षमता विद्यमान थी। कवि ने उपदेशशतक में बिना वाम प्राठौँ जाम बैठो घाम झर है। मिथ्यात्व-मम्यक्त्व की महिमा, गृहवास का दुख, इन्द्रियों रोजगार बने नाहि रोज रोज गारी खांहि, को दासता नरक-निगोद के दुख, पुण्य-पाप की महत्ता, ऐसौ रोजगार एक धर्म किये पूरै है ॥६४ धर्म का महत्व, ज्ञानी-अज्ञानी का चिन्तन और प्रात्मानुभूति की विशेषता प्रादि विषयों का सरस विवेचन ___ जब तक जीव अपनी भ्रम दशा का परित्याग नहीं किया है। करता, तब तक उसकी ममता पर पदार्थ से नही हटतीमाशा की नूतन राशिया अज्ञानी के मानस क्षितिज उसमें ही चिपकी रहती है । तब स्व-पर के भेद विज्ञान में पर उदित हो रही हैं। उससे उसका संतुलन बिगड़ गया उसका मन नही लगता, वह राग-द्वेष के भ्रमजाल में ही है, वह चिता से सतप्त हुअा कि कर्तव्य विमूढ़ हो रहा है। उलझा रहता है। भवकूप से निकलने की सामर्थ्य भी कवि उसे सान्त्वना देता हुमा सोच एवं चिन्ता छोड़ने का उसमे व्यक्त नहीं हो पाती। कवि कहता है कि मिथ्याउपदेश दे रहा है। तिमिर का अवसान होने पर ही बोध-भानु प्रकट होता काहे की सोच कर मन मूरख, सोच करै कछु हाथ न ऐहै, है तभी मोह की दौड धूप से जीव को छुटकारा मिल पूरव कर्म सुभासुभ संचित, सो निह अपनो रस हैं। सकता है। और तब आपको पाप और पर को पर ताहि निवारन को बलवंत , तिहें जगमाहि न कोउ लसहै, मानता है और प्रात्मरस में विभोर हो शिवभूप से स्नेह ताताह सोच तजो समतागहि, ज्यों सखोड जिनं को करता है, और शाश्वत सुख का पात्र बनता है। यह ठीक है कि जीव अपनी प्राजीविका या रुजगार स्व-पर न भेद पायो पर हो सौ मन लायो, के लिए निरन्तर चिन्तावान रहता है, उसके प्रभाव में मन न लगायौ निज प्रातम सरूप सौ। राग-दोषमांहि सूता विभ्रम अनेक गता, छयाले मिले सुगुरु बिहारीदास मानसिंघ । तिनों जैन मारग का सरधानी कीन जी। भयौ नाहि व्रता जो निकसों भवकूप सौ॥ पचत्तर माता मेरी सील बुद्धि ठीक करी। अब मिथ्यातम सान प्रगटौ प्रबोष-भान, सतत्तरि सिखर समेद देह खीन जी। महासुख दान प्रान मोह दौर धूप सौं। कछु प्रागरे में कछु दिल्ली माहि जोर करी। प्राप प्रापरूप जान्यौ पर हो को पर मान्यौ, अस्सी माहि पोथी कोनी परवीन जी ॥३८ परस सान्यौ ठान्यौ नेह शिव भूप सौं॥७७ कवि ने अपनी रचनाप्रो मे अनेक सुभाषित भी दिये सवत विक्रम नृपत के, गुण वसु शंल सितश । है : उनका नमूना इस प्रकार है :कतिक सुकल चतुरदशी, द्यानत सुर गंतूश ॥ “मैं मधु जोरपी नहि वियौ, हाथ कल पछिताय । -धर्मविलास प्रशस्ति धन भति संची वान वो माखी कहै सुनाय।।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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