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ग्वालियर के तोमर राजवंश के समय जनधर्म
कीजिए । मुझसे जो पाप मांगेगे वही दू गा । और ताम्बूल जीवन बिता रही थी। नैतिक धरातल उच्च कोटि का आदि से उसका सम्मान भी किया था। इससे डूंगरसिंह था, इसी से वहा चोरी, अन्याय, अत्याचार प्रादि नहीं की धार्मिक उदारता का परिचय मिलता है। इसका होते थे। प्रजा मे कहीं भी दीनता दिखाई नहीं देती थी। उल्लेख कवि रइधू ने सम्मत्त गुणनिधान की पीठिका मे सभी वर्ग अपने-अपने व्यवसाय में अनुरक्त रहते थे। पौर किया है।
सभी को अपने-अपने धर्मसेवन की स्वतत्रता प्राप्त थी। इसके बाद कवि रइध ने नेमिनाथ चरित, पाश्वनाथ हा राज्य की भोर से गौ संरक्षण अनिवार्य था। वहां के चरित और बलभद्र चरित (रामायण) की रचना की है। बाजारो मे विविध वस्तुग्रो का क्रय-विक्रय होता था। क्योंकि सं० १४९६ में रचे जाने वाले सुकौशल चरित मे जनता का व्यवहार निष्कपट और सुखद था। वहा खल, उक्त ग्रथो के रचे जाने का उल्लेख किया है।
दुष्ट और पिशुन जन देखने में नहीं पाते थे। लोगो का सवत् १४९७ में परमात्मप्रकाश की सटीक प्रति व्यवहार सरल और प्रेममय था। लोग प्रात्म निरीक्षण लिखी गई, जो इस समय जयपुर के ठोलियों के मन्दिर को अधिक पसन्द करते थे। यही कारण है कि राज्य मे के शास्त्रभडार मे सुरक्षित है।
कही भी प्रशान्ति दृष्टिगोचर नहीं होती थी। उस समय सवत १५०६ मे धनपाल की भविष्यदत्त पचमी कथा ग्वालियर में महाजन और धनाढय व्यक्ति निवास करते की प्रति लिपि की गई, जो कारजा के शास्त्र भडार में थे, जो देवशास्त्र और गुरु की विमय करते थे। श्रावक मौजूद है।
लोग प्रावश्यक पट्कर्मो का दृढता से पालन करते थे। सवत् १५१० में समयसार की प्रतिलिपि की गई, और नारीजन शील व्रत का दृढता से पालन करती थीं। जो अब कारजा के सेनगण भडार मे उपलब्ध है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र का निरन्तर प्रयास होता था,
सवत् १४६७ और सवत् १५१० मे प्रतिष्ठापित लोग भव-भोगों से विरक्त रहते थे, सामायिक और स्वामूर्तियो के लेख उपलब्ध है१ ।
ध्याय समय पर होते थे, पर्व के दिनो मे प्रोषध (उपवास)
भी किया करते थे। इस तरह श्रावक जन विषय-कषायों डूंगरसिंह के राज्य में ग्वालियर
को जीतने का उपक्रम करते थे। दूसरों के अवगुणों पर इस तरह गोपाचल जैन संस्कृति का केन्द्र बना हुआ
कभी दृष्टि नहीं डालते थे। जुमा प्रादि सप्तव्यसनो मे रहित था। वहा जैन सस्कृति के प्रचार और प्रमार मे भ० गुण
होकर अणुव्रतादि द्वादश व्रतो का अनुष्ठान करते थे। कीर्ति, उनके शिष्य प्रशिष्यो का पूर्ण सहयोग रहा है। मयान में विपित थे। लोक कला
मम्यग्दर्शन से विभूपित थे । लोक कल्याण मे प्रवृत्ति करते भ० गुणकीर्ति एक प्रभावशाली विद्वान भट्टारक और हा ग्रात्म-साधना में निरत रहते थे। अहार के समय प्रतिष्ठाचार्य थे। उन्होने अनेक मूर्तियो की प्रतिष्ठा कराई
द्वारापेक्षण मे मावधान रहते थे। दानादि द्वारा जन थी। ग्वालियर के तोमर राजवश पर भ. गुणकीति का
कल्याण करना प्रात्म कर्तव्य मानते थे। जिनेन्द्र पूजा और महत्वपूर्ण प्रभाव था। उनके शिष्यों का बडा परिकर
महोत्सव रूप व्यवहार धर्म मे प्रवृत्ति करते हुए भी अपने ग्वालियर में विद्यमान था। राजा डूगरमिह के गज्यकाल
लक्ष्य भूत प्रात्मा के चैतन्य गुण पर दृष्टि रखते थे। और मे ग्वालियर चरमोन्नति की सीमा को पहुँच चुका था।
निरन्तर जिन मूत्र रूप रमायन के पान से सतुष्ट रहते थे । वहा की प्रजा अत्यन्त खुशाल थी और सन्तोष पूर्वक
इस प्रकार उस समय के श्रावको की दिनचर्या से स्पष्ट है १. देखो, जनरल एशियाटिक सोसाइटी भाग ३१,
कि ग्वालियर में जैन धर्म का प्रचार एवं प्रसार किस रूप पृ० ४२३ ।
में हो रहा था। गोपाचन दुर्गे तोमरवशे राजा श्री गणपति देवास्त राजा डूगरमिह ने संवत् १४५१ से स, १५१० तक पुत्रो महाराजाधिराज श्रीडूंगर्गसह राज्ये [प्रतिष्ठित] ३० वर्ष तक ग्वालियर पर शामन किया है। उसके राज्य चौरासी मथुरा की मूलनायक मूर्ति का लेख । काल मे प्रजा सुखी और समृद्ध रही है।