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________________ भनेकान्त और कठोर छैनी से पाहत होती हुई शान्ति और तपस्या नार्थ लिखवाई थी। की महान् भावना से मुखरित हो उठी हैं । शिल्पी ने कला कवि र इधू ने ग्वालियर निवासी साह कमलसिंह के की अभिव्य जना करते हुए विशालता, वीतरागता पोर लिए सम्मत्त गुणनिधान नामक ग्रन्थ की रचना सं० सौन्दर्य की अपूर्व पुट देकर भूतियों को उत्कीर्ण किया है। १४९२ में भाद्रपाद मास की पूर्णिमा के दिन समाप्त की और निर्मापक की निर्मल भावनामों को साकार रूप देकर थी। इस ग्रथ की रचना कवि ने तीन महीने में की थी, अमर बनाने का प्रयत्न किया है। इनसे गढ़ के चारों ओर जैसा कि उसके पद्यो से प्रकट है :का वातावरण अपूर्व सौन्दर्य और शान्ति से मुखरित हो चउदह सय वणव उत्तरालि, वरिसइ गय विक्कमरापकालि, उठा है। वक्खयत्तु जि जण-वय समक्वि, भद्दवमासम्मि ससेय पक्खि । उरवाही द्वार की २२ जैन मूतियो मे आदिनाथ की पुण्णमि दिण कुजवारे समोई, सुहयार सुहणामें जणोइं । मूर्ति सबसे विशाल है । वह ५७ फुट की है, उसके चरणो तिहु मास रंयति पुग्ण हूउ, सम्मत्त गुणाहिणिहाणु धूउ । के पास ६ फुट की चौड़ाई है। इनमें नेमिनाय की पद्मासन मवत् १४९२ मे पूर्व साहु खेमसिह के पुत्र कमलसिह मूर्ति ३० फुट ऊंची है। इतनी विशाल मूर्ति अन्यत्र ने ११ हाथ ऊंची प्रादिनाथ की एक विशाल सर्ति का मिलना कठिन है । इन २२ प्रतिमानों में से छह पर सं0 निर्माण कगया था । जिसके प्रतिष्ठोत्सव के लिए राजा १४६७ से १५१० के लेख अंकित हैं । डूगर्गमह में प्राज्ञा मागी थी। तब राजा ने स्वीकृति देते किले के उत्तर पश्चिम के मूर्ति समूह मे प्रादिनाथ हा कहा था कि आप इस धार्मिक कार्य को सम्पन्न की एक महत्वपूर्ण मूर्ति है जिस पर १५२७ का अभिलेख अकित है। उत्तर पूर्व की मूर्तियों की कला साधारण है, १. मवत् १४८६ वर्षे अश्वणि वदि १३ सोमदिने और उन पर लेख भी नही हैं। गोपाचल दुर्गे राजा डूंगरसिंहदेव विजयराज्य प्रवर्तदक्षिण पूर्व की कलात्मक विशाल मूर्तिया ग्वालियर के माने श्री काष्ठामधे माथुरान्वये प्राचार्य श्री भावसेन फून बाग दरवाजे से बाहर निकलते ही लगभग अर्ध मील देवास्तत्प? श्रीसहस्रकीति देवास्तत्प? श्री गुणकीति तक उत्कीर्ण की हुई दिखाई देती है। इनमे अनेक मूनिया देवास्ततिष्येन थी एश कीतिदेवेन निजज्ञानावरणी २० फुट से ३० फुट तक की ऊचाई को लिए हुए है। कर्म क्षयार्थ इदं सुकमाल चरित लिखापितं । कायस्थ उनमे प्रादिनाथ, नेमिनाथ, पद्मप्रभ, चन्द्रप्रभ, कुन्थनाथ यान नपुत्र थलू लेखनीय । -जयपुर भडार पौर महावीर आदि की मूर्तिया है। जिनमे से कुछ पर मवत् १४८६ वर्षे प्रापा ढ वदि ६ गुरु दिने गोपाचलपं० १५.५ से १५३० तक के अभिलेख उत्कीर्ण है। दुर्गे राजा डूगरसीह राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे प्राचार्य श्री सहस्रकीति देवाडूंगरसिंह के राज्य में ग्रंथ निर्माण और मूतिप्रतिष्ठा स्तत्पट्ट प्राचार्य गुणकीति देवास्तच्छिष्य यश:कीति राजा डूंगरसिह के समय ग्वालियर के जैन धर्मानु देवास्तेन निजज्ञानावरणी कर्म क्षयार्थ इदं भविष्यदत्त गायी श्रावकों ने भी अनेक मूर्तियों का निर्माण कराया पत्रमी कथा लिखापित । और उनका प्रतिष्ठा महोत्सवादि कार्यभी सम्पन्न किया है । (नया. मंदिर धर्मपुरा दिल्ली) इतना ही नहीं किन्तु अनेक ग्रंथों की रचना भी हुई। और २ जो देवाहिदेव तित्थंकरु, पाइणाह तित्थोय सुहंकरु । अनेक प्रथों की प्रतिलिपियां भी की गई है । जिनमे से यहा तहु पडिमा दुग्गइ-णिण्णासणि, कुछ का उल्लेख पाठकों की जानकारी के लिए किया जा मिच्छत्त-गिरिद-सरासणि । नाता है। जा पुणु भब्वह सुहगइ-सासणि, संवत् १४८६ (सन् १४२६) मे भ० गुणकीति के जा महिरो-सोय-दुह-णासणि । शिष्य भ. यश कीति ने सुकमाल चरित और कवि श्रीधर सा एयारह कर पविहंगी, काराविय णिरुवम प्रस्तुगी।। की संस्कृत भविष्यदत्त पचमी कथा की प्रतिया प्रात्म पठ- -सम्मत गुण नि० जैन ग्रंथ प्रश. स भाम २ पृ.८६
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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