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________________ ग्वालियर के तोमर राजवंश के समय जैनधर्म रूपवती और पतिव्रता थी। इनके पुत्र नाम कीर्तिपाल१ डूंगरीसह तोमरवंश का शिरोमणि था, मनेक राजामों से या कीतिसिह था, जो अपने पिता के समान ही गुणज्ञ, पूजित और सम्मानित था और शत्रुमो का मान मर्दन बलवान और राजनीति में चतुर था२ । डूंगरसिह ने सन् करने में दक्ष था३ । शत्रु जन सके प्रताप एव पराक्रम से १४३८ (वि० सं० १४६५) मे नरसर के किले पर घेरा भयभीत रहते थे। युद्ध स्थल में उसके समान मन्य कोई डाला था, जो उस समय मालवे के प्राधीन था। यद्यपि बीर योद्धा नहीं था। जब उसकी तलवार शत्रुकपोलों पर डूंगरसिंह को उस समय सफलता न मिली, परन्तु बाद में पडनी थी तब वे कमलनाल की तरह खडित हो जाते थे। उम पर तोमर वश का अधिकार हो गया था। राजा वह शत्रुगरणों की कामनियो के मन को सल्ल देने वाला था, १. कवि रधु ने श्रीपाल चरित मे–'तह कित्तिपालण- बहुत कहन में क्या उसका यश दशो दिशा में व्याप्त था४। दणु गरि?' वाक्य द्वारा कीर्तिपाल नाम का उल्लेख गरसिंह द्वरा जंन मूति निर्माण कार्य किया है, और कीतिसिंह नाम भी दिया है। जैनधर्म पर उसका केवल अनुगग ही न था किन्तु स्व० गौरीशकर हीराचन्द जी ओझा ने टाड उम पर उसकी परम प्रास्था भी थी। उसने किले की राजस्थान के २५० पृष्ठ की नवर वाली टिप्पणी में बेडोल और अमन्दर लगने वाली चट्टानो को अपार कीतिसिह के दूसरे भाई पृथ्वीराज का उल्लेख किया मौन्दयं में परिगत कराया। जंन मूर्तियों के निर्माण में है, जो मन् १४५२ (वि. स. १५०६) म जोनपुर उसने महम्रो रुपया व्यय किये थे। जैन प्रतिमानो के के मुलतान महमूद शाह शर्की और दिल्ली के बाद उन्कोर्ण होने का काल ३३ वर्ष पाया जाता है। यह कार्य शाह बहलोल लोदी के बीच होने वाले सग्राम म डूगर्गसह अपने जीवनकाल में पूग नही कग सका, तब महमूद शाह के सेनापति फतहखा हावी के हाथ से उसके प्रिय पुत्र की तिमिह ने पूग कगया। ग्वालियर गढ़ मारा गया था। परन्तु र इधू कवि ने डूंगरीमह क के चारो मोर कलात्मक जैन मुनियो का निर्माण कराकर द्वितीय पुत्र का कोई उल्लेख नहीं किया। अपनी उदार भावना का परिचय दिया है। ग्वालियर गढ़ २. हि तोमर कुल मिरिरायहमु, को यह भावमयी प्रतिमाए मूर्तिकलाकी महत्वपूर्ण वस्तु है । गुणगण-रयणायरु लद्धसमु । किले की बेडौल और मुक चद्राने शिल्पियो की माधना अण्णाय-णाय-णासण पवीण,.. ३ श्री लोमन कशिखामणिन्त्र, अरिराय उरत्थलि-दिण्णि-दाहु । य प्राप भूपालगतावितानिः । समरंगणि पत्तउ विजय-लाहु, श्रीगजमानो हतशत्र मान , खग्गगि डहिय जे मिच्छ-वसु । श्रीड़गरेद्रात्र नगघिपोस्ति। जस ऊरिय रिय जे दिसतु, ---ममयमार लिपि १० मनगण भंडार, कारजा णिवपट्टाल किय विउलेभालु । ... ... .. भय बल पमाण, अतुलिय बल खल-पलय-कालु, ममरंगणि अण्ण ण तहु ममाणु । मिरिणिव गणेस णदणु पयडु । णिरुवभ अविरल गुण मणि पिके उ, ण गोरक्खण विहिण उ वमडु, माहणममुद्दु जयसिरिणिवामु, मत्तग रज्ज भर दिण्ण खधु । जस ऊयरि परियदहदिसामु । सम्माण-दाण तोसिय - सब, करवाल णिहाएं अरि-कवाल, करवाल पट्टि विप्फुरिय जीहु । तोडि वि घल्लि उ ण कमलणालु । - X X X दुम्पिच्छ मिच्छ रणरगु मल्लु, तह पट्ट महाएवी पसिद्ध, चदादेगामा परणयरिद्ध । अरियणकामिणिमण दिण्णु सल्लु। सयलते उरमज्भह पहाणु णिय-पद-मण-पोषण सावहाणु। -सम्मत्तगुणनिधान प्रशस्ति
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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