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________________ भनेकान्त सं० १४६८ मे प्राषाढ़ वदि २ शुक्रवार के दिन विमलमति को पूजा विधान महोत्सव के साथ समर्पित की ग्वालियर में राजा वीरमदेव के राज्यकाल में काष्ठासघ थी, जिसे पडित रामचन्द्र ने लिखा था। यह प्रति मामेर माथुरान्वय पुष्करगण के प्राचार्य श्री भावसेन, सहस्रकीति भण्डार में उपलब्ध है। और भ० गुणकीति की प्राम्नाय मे साह मरदेव की पुत्री यद्यपि वीरमदेव के राज्यकाल मे अनेक धार्मिक, देवसिरि ने 'पचास्तिकाय' टीका की प्रति लिखवाई थी, सामाजिक राजनैतिक और मास्कतिक काम जो इस समय कारंजा के शास्त्रभडार मे उपलब्ध है। है। किन्तु उन सब का एकत्र संकलन न होने से उस पर सवत् १४६६ में उक्त राजा के राजकाल में प्राचार्य इस समय कुछ नही लिखा जा सकता। वीरमदेव के बाद अमृतचन्द्रकृत प्रवचनसार की 'तत्त्वदीपिका' टीका लिखी उनका पुत्र गणपतिदेव गद्दी पर बैठा । परन्तु उसने भी गई थी, जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न वाक्यो से प्रकट थोडे समय ही राज्य कर पाया है, इसी से उसक राज्य काल के कोई उल्लेख अभी उपलब्ध नहीं हुए। विक्रमावित्यराज्यऽस्मिश्चतुर्दशपरेशते । नवषष्ठया युते किन गोपाद्री देवपत्तने ॥३॥ राजा डूंगररांसह अनेकभूभकपद पद्मलग्नस्तस्मिन्निवासी नन पाररूपः । मन् १४२४ (वि० स० १४८१) में गणपतिदेव का शृंगारहारो भुवि कामिनीनां भभक प्रसिद्धःश्रीवीरमेन्द्रः।।४ पूत्र इगमिह गद्दी पर बैठा, डगरसिह एक वीर सेनानी __सवत् १४७६ मे अपाढ़ सुदि ५ बुधवार के दिन और पराक्रमी शामक था। वह तोमर वश का राजहस र गोपाचल मे वीरमदेव के राज्य समय२ गढोत्पूर के नेमि था, उसकी जैन धर्म पर पूर्ण प्रास्था थी। उसके जीवन नाथ चैत्यालय में काष्ठासंघ माथुरान्वय पुष्करगण के में जैनधर्म के सिद्धान्त उसके सहयोगी बने हुए थे । यद्यपि दिन जमा भट्रारक भावसेन, सहस्रकीति प्रतिष्ठाचार्य गुणकीति ग्वालियर की सुदृढ़ स्थिति और वैभव को देखकर शत्रुगण देव, विमलकीर्तिदेव, रामकीतिदेव, खेमचन्द्रदेव, भट्टारक डूंगरमिह को चन से रहने नहीं देना चाहते थे। मालवा गुणकीति के शिष्य यश कीति, हरिभूषण, अजिका का हुशगशाह और दिल्ली का मुबारक शाह दोनो ही धर्मथी, सयमधी, शीलश्री, चारित्रश्री, धर्ममति विमल मतत कष्ट देते रहते थे। परन्तु डूंगरसिह राजनैतिक मति और सुमतिमति की प्राम्नाय में अग्रवाल कुलोत्पन्न विवेक के साथ अपने कर्तव्य का पालन करता था "हुशंग चतुर्मुख के निवासी साहु यजन पत्नी उदसिरि पुत्र जौतु शाह मे पीछा छुड़ाने के लिए वह कभी मुबारक शाह का गुर्जर, जौतु पत्नी सरो पुत्रवाधू उसकी दो स्त्रिया थी और कभी हुशंग शाह का सहयोग प्राप्त कर लेता था। जोल्हाही और सुहागधी, पुत्र प्राढा। इनके मध्य में इसके लिए उसे कर भी देना पड़ता था, इस तरह वह जौतकी स्त्री सरो ने अपने ज्ञानावर्णी कर्म के क्षयार्थ पट. अपनी चतुराई मे स्वतंत्रता को कायम रखने में समर्थ हो कर्मोपदेश की यह प्रति लिख कर जैत थी की शिष्या सका था। उसमे दयालुता और धार्मिकता के साथ अदम्य १. संवत्सरेस्मिन् विक्रमादित्य गताब्द १४६८ वर्षे प्राषाढ उत्साह और साहस था जिससे वह विपदा मे भी धैर्य वदि २ शक्र दिने श्री गोपाचले राजा वीरमदेव विजय रखता था। धर्म मे उसे दृढ़ता थी। वह राजनीति मे दक्ष, राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठासघे माथरान्वये पुष्कर गणे शत्रुयो के मान मर्दन करने में समर्थ और क्षत्रियोचित प्राचार्य श्री भावसेनदेवा तत्पट्ट श्री सहस्रकीतिदेवाः क्षात्र तेज से अलंकृत था। गुण समूह से विभूषित, अन्याय तत्प भट्रारक श्री गुणकोतिदेवास्तेषामाम्नाये सघद रूपी नागों के विनाश करने में प्रवीण, पचाग मत्र शास्त्र महाराजवधू साधु मरदेव पुत्री देवसिरि तया इदं मे कुशल, तथा प्रतिरूप अग्नि से मिथ्यात्वरूपी वंश का पंचास्तिकायसार ग्रंथ लिखापितम् । दाहक था, जिसका यश सब दिशापो में व्याप्त था। राज -कारजा भडार पट्ट से अलकृत विपुल भाल और बल से सम्पन्न था। २. देखो, मामेर भडार अथ प्रशस्ति स० । डूंगरसिंह की पटरानी का नाम चदादे था जो अतिशय
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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