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माम पहम
अनेकान्ता
परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । मकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष २० किरण ४
। ॥
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६३, वि० ग० २०२४
5 अक्तूबर । सन् १९६७
शान्तिनाथ-स्तोत्रम् त्रलाक्याधिपतित्वसूचनपरं लोकेश्वररुद्धतं, यस्योपर्यु परीन्दुमण्डल नभं छत्रत्रयं राजते । प्रश्रान्तोदगतकेवलोज्ज्वलरुचा निर्भत्सितार्कप्रभं. सोऽस्मान् पातु निरजनो जिनपतिः श्रोशान्तिनाथः सदा ॥१॥ देवः सर्वविदेष एव परमो नान्यस्त्रिलोकोपतिः, सन्त्यस्यैव समस्ततत्त्वविषया वाचः सतां संमताः । एतद्धोषयतीव यस्य विबुधरास्फालितो दुन्दुभिः, सोऽस्मान् पात निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिना: सदा ॥२॥
-मुनि श्री पचनन्दि अर्थ-जिस शान्तिनाथ भगवान के एक-एक के ऊपर इन्द्रो के द्वारा धारण किए गए चन्द्रमण्डल के समान तीन छत्र तीनों लोकों की प्रभुता को सूचित करते हुए निरन्तर उदित रहने वाले केवल ज्ञान रूप निर्मल ज्योति के द्वारा सूर्य की प्रभा को तिरस्कृत करके सुशोभित होते हैं. वह पापरूप कालिमा से रहित श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगों की सदा रक्षा करे ॥१॥ जिसकी भेरी देवों द्वारा ताड़ित होकर मानो यही घोषणा करती है कि तीनो लोकों का स्वामी पौर सर्वज्ञ यह शान्तिनाथ जिनेन्द्र ही उत्कृष्ट देव हैं और दूसरा नहीं है। तथा समस्त तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने वाले इसी के वचन सज्जनो को अभीष्ट है-दूसरे किसी के भी वचन उन्हे प्रभीष्ट नही है। वह पापम्प कालिमा से रहित श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगों की सदा रक्षा करे ॥२॥