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________________ १०८ अनेकान्त टाइप-द्वारा साथ मे लिये हुए है, और कुछ दिन बाद उसे (इन्द्रनन्दी मूरि के) 'ईहित की नन्दिनी' भी बतलाया है। भिजवा दिया, जिसके लिए मै उनका भी प्राभारी हैं। टीका के अन्त मे जो प्रशस्ति पद्य दिया है उसमे टीका का इस टीका के तुलनात्मक अध्ययन और उस पर से नाम 'योगिरमा' सूचित किया है और उसे 'योगसारी' परिचयात्मक नोट्स तथा मूल के पाठान्तर लेने आदि पर विशषण भी दिया है। साथ ही जिसके विशेष बोध के जो परिश्रम किया गया है उसके फल स्वरूप ही प्राज यह निमित्त यह टीका रची गई है उसका नाम 'चन्द्रमती' परिचायक लेख लिखा जाकर पाठकों की सेवा मे उपस्थित दिया है और उसे जैनागम, शब्दशास्त्र, भरत (नाटय) किया जाता है, जिससे अन्धकार में पड़ी हई यह टीका और छन्द.शास्त्रादि की विज्ञा तथा 'चारुविनया' बतलाया प्रकाश में पाए और अपने लाभो से जगत को लाभान्वित है-'चारुविनया विशेषण से वह उनकी अच्छी विनयकरने में समर्थ हो सके। साथ ही हम अपने उपकारी टीका- शीला शिष्या भी हो सकती है । प्रशस्ति का वह पद्य, कार को कुछ जान पहचान सके, जिमने उपकार-बुद्धि से जिसमे टीका के निर्माण का समय भी दिया हुआ है, इस टीका के निर्माण में कब कितना परिश्रम किया था और प्रकार है:उसके द्वारा मूल योगशास्त्र को कहाँ तक उजाला था । खाष्टश शरवीति मासि च शची शक्ल द्वितीयातियों प्रस्तुत टीका के निर्माता भट्टारक इन्द्रनन्दी है, जो उन टीका योगिरमेन्द्रनन्दिमनिप: श्री योगसारी कृता । भट्टारक श्री अमरकीति के शिष्य थे जिन्हे टीका के प्रादि योजनागमशब्दशास्त्र भरत-छन्दोभिमुख्यादिकमे चतुर्धागमवेदी, मुमुक्षुनाथ, ईशिन, अनेकवादिव्रज- वेत्री चन्द्रमतीति चारुविनया तस्या विबोध्य शुभा ॥ मे वितचरण और लोके परिलम्धपूजन जैसे विशेषणो के इसमें टीका का जो निर्माण काल 'खाष्टेशे प्रादि पदो साथ उल्लेखित किया गया है। टीका की प्रादि मे मगला- के द्वारा दिया है उससे वह शक-सवत ११८० की ज्येष्ठ चरणादि को लिए हए जो तीन पद्य है वे इस प्रकार है- शक्ला द्वितीया के दिन बनकर समाप्त हुई जान पड़ती प्रणम्य वीरं त्रिजस्प्रवन्द्य विभावनेकान्तपयोधिनन्द्रम्। है। 'खाष्टेश' पद ११८० का और 'शरवि' पद सवत्सर देवेश महानतमः खराशुं समस्तभाषामयसुध्वनीशम् ॥१ का वाचक है । यह ११८० विक्रम संवत् तो हो नही लसमचतुर्षागमवेदिन परं मुमुक्षनाथाऽमरकोतिमीशिनम्। मकता , क्योकि उस वक्त तक तो मूल योगशास्त्र का अनेकवादिवजसेवितक्रम विनम्य लोके परिलब्धपूजनम् ।२ निर्माण भी नही हुआ था, तब यह शक संवत् ही होना जिना (निजात्मनो ज्ञानविवे प्रशिष्टां चाहिए । दूसरे 'खाष्टेशे' पद में जिस ईश' शब्द का प्रयोग विद्वद्विशिष्टस्य सुयोगिनां च । है वह 'ईश्वर' का वाचक है और शक काल-गणना मे योगप्रकाशस्य करोमि टोकां सूरीन्द्रनन्दोहितनन्दनों वै ॥३ 'ईश्वर' नामका ११वां सवत्सर है, उसीसे उसकी ११ इनमें से प्रथम पद्य वीर भगवान की और दूसरा सख्या का ग्रहण किया जाता है । तदनुसार यहाँ ११८० अपने गुरु अमरकीति स्वामी की स्तुति में है। तीसरा शक संवत् ही ठहरता है । जो विक्रम संवत् १३१५ के पद्य टीका के निर्माण की प्रतिज्ञा को लिये हुए है, जिसमे बराबर है और इसलिए टीका को निमित हुए आज ७०८ मूल ग्रन्थ को यहाँ 'योगप्रकाश' नाम म उल्लेखित किया वर्ष से ऊपर का समय हो चुका है । प्राचार्य हेमचन्द का है, जिसका कारण उसमे योग-विषय के द्वादश प्रकाशो निधन वि० सवत् १२२६ मे हुया है, उनके निधन से यह का होना जान पड़ता है। अन्यत्र संधियों में 'योगशास्त्र' टीका कोई ८६ वष बाद की बनी हुई है। और 'योगसार' नाम से भी उल्लेखित किया है । मूल योगशास्त्र मुख्यत. दो विभागो में विभक्त है, जिनमें ग्रन्यकार के लिये यहाँ 'विद्विशिष्ट' विशेषण का प्रयोग से प्रथम विभाग मे मादि के चार प्रकाश है और द्वितीय किया गया है और टोका को अपने तथा अन्य योगियों के विभाग शेष पांच से बारह तक पाठ प्रकाशो को लिये हुए लिये 'ज्ञानविदे प्रशिष्टा' लिखा है और साथ ही अपने है। प्रा. हेमचन्द्र का स्वोपज्ञ विवरण प्रायः प्रयम विभाग
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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