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________________ आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र पर एक प्राचीन दि० टीका जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' श्रीमदमितगति-नि.सगयोगिराज-विरचित योगमार- भी इस टीका का कोई परिचय मुझे प्राप्त नही हमा पौर प्राभूत की हस्तलिखित मूल प्रतियो तथा उस पर लिखी इसलिए मैने प० दलसुख जी मालवणिया (प्रहमदाबाद) गई किसी सस्कृत टीका की खोज करते-कराते समय मुझे और पं० सुबोधचन्द्र जी ( जैन माहित्य विकास मडल, हाल में देव योग मे एक ग्रन्थ प्रति उपलब्ध हुई है जिसके बम्बई) जैसे कुछ श्वेताम्बर विद्वानों से यह जानना चाहा ऊपर बाद को किसी दूसरी कलम मे लिखा गया है:- कि क्या हेमचन्द्राचाय के योगशास्त्र पर उनके स्वोपज्ञ "प्रय योगप्रकाशः ग्रन्थः प्रस्य टोका इनदिनामा विवरण के बाद की बनी हुई कोई संस्कृत टीका श्वे. भट्टारकेन कृता" शास्त्र भण्डागे में उपलब्ध है ? उत्तर में यही मालम पहा ग्रन्थप्रति के अन्त में ग्रन्थ को 'योगसार' और टीका कि ऐमी कोई टीका उपलब्ध नहीं है ? 40 सुबोधचन्द्र जी को 'योगसाटीका' भी लिखा है, परन्तु देखने पर मालूम ने तो दिगम्बर टीका की उपलब्धि को जानकर अपनी हा कि यह अपने प्रभीष्ट योगसार पाभत की टीका नहीं प्रसन्नता व्यक्त करते हुए यह भी लिखा कि "योगसार है बल्कि प्राचार्य हेमचन्द के योगशास्त्र पर लिखी गई शास्त्र पर दिगम्बरीय टीका होने का (हाल) मैं सर्वप्रथम एक टीका है, जिसमे योगशास्त्र को योगशास्त्र नाम से सुन रहा है, यह प्रानन्द दायक समाचार है।" ऐसी स्थिति ही नहीं किन्तु 'योगप्रकाश' और 'योगमार' नाम से भी मे इस नवोपलब्ध टीका का सर्व साधारण को परिचय उल्लेखित किया है। यह टीका प्रति कारंजा (अकोला) के देने के लिए मुझे अन्तःकरण से प्रेरणा मिली और मैंन एक शास्त्र भडार मे ब्रह्मचारी माणिक वन्द जी चवरे द्वारा टीका का तुलनादि के रूप में कुछ विशेष प्रध्ययन प्रारम्भ उपलब्ध हुई है, जिसके लिए मैं उनका प्राभारी हूँ। इम किया। इस अध्ययन के लिय प० दरबारीलाल जी जैन प्रति की पत्र संख्या ७७, पत्रो की लम्बाई १० पौर कोठिया न्यायाचार्य ने योगशास्त्र की स्वोपज्ञ विवरण सहित चौडाई ४।। इन्ची है, पत्र के प्रत्येक पृष्ठ पर पक्ति संख्या मुद्रित प्रति मुझे स्यावाद विद्यालय काशी के प्रकलक प्रायः ११-कही कही १२ तथा दो तीन पत्रो पर १३.१३ सरस्वती भवन से भेज दी, जिसके लिये मैं उनका प्राभारी भी है. प्रति पंक्ति अक्षर संख्या प्रायः ५५ मे ६० तक, है । परन्तु योगशास्त्र की यह मुद्रित प्रति मोटे कागज पर कागज पुराना देशी और लिखाई, जो पड़ी मात्रामो के होने पर भी इतनी जीणं तथा कडकव्वल जान पडी कि प्रयोग को भी लिए हए है, अच्छे सुन्दर प्रक्षों में प्रायः पत्रों को इधर उधर पलटने पर उनके टूट जाने का भय शुद्ध है-कही कही कुछ अशुद्धियाँ भी पाई जाती हैं। उपस्थित हो गया और इसलिए उस पर काम करना कठिन कागज प्रादि की स्थिति को देखते हए यह प्रति प्रायः ४०० जान पडा । श्री १० मुबोधचन्द्र जी को जब किसी दूसरी वर्ष पुरानी लिखी जान पड़ती है। मूल ग्रन्थ प्रति को भिजवाने के लिए लिखा गया तब इस टीका को देखकर मेरे हृदय मे यह जिनामा उत्पन्न उन्होने भी म्योपज्ञ-विवरण-प्रति की जीर्णता को स्वीकार हुई कि क्या यह टीका पहले से उपलब्ध एवं लोक- किया पार लिखा कि हमारा मडल इसका फिर स छपपरिचय मे भाई हुई है अथवा नई ही उपलब्ध हुई है। वाना चाहता है। साथ ही एक दूसरी मुद्रित प्रति की दिगम्बर शास्त्र भण्डारों को मैंने बहुत देखा है, बहतो की सूचना की जो योगशास्त्र मूल के साथ उसके स्वोपज्ञ सूचियां भी देखने में प्राई है परन्तु इससे पहले कही से विवरण में पाये जाने वाले 'प्रान्तर' इलोकों को भी भिन्न
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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