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________________ ज्ञानार्णव व योगशास्त्र : एक तुलनात्मक अध्यन बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री ज्ञानार्णव निश्चय नही हपा है, तथा जिनकी प्रशुभ भावलेश्या नष्ट प्राचार्य शुभचन्द्र विरचित ज्ञानार्णव एक प्रसिद्ध ग्रन्थ नहीं हुई है। ऐसे व्यक्तियो को उस ध्यान का अनधिकारी बतलाया गया है। इसी प्रमग मे यह भी संकेत किया इसी इमे योगप्रदीपाधिकार भी कहा गया है। यह परम गया है कि जो मुनिधर्म को जीवन का उपाय बना थन प्रभावक मण्डल बम्बई में प्रकाशित (१९२७) प्रति लेते है उन्हें लज्जा पानी चाहिए। उनका यह दुष्कृत्य के अनुमार ४२ प्रकरणो में विभक्त है। भाषा उसकी एमा ऐमा घृणास्पद है जैसे कोई अपनी मा को वेश्या बनाकर मस्कृत है जो मरल व माकर्षक है। ग्रन्थ का अधिकाश जीवनयापन करने लग जाय । जो साधु होकर भी निलंज्ज जविनय भाग अनुष्टुप् छन्द में है, माथ ही उसमें यत्र तत्र शार्दल- होते हुए इस प्रकार के घृणित कार्य किया करते है वे सन्मार्ग विक्रोडिन. सग्यरा, मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी और मालिनी की विराधना करके नरक के मध्य में प्रविष्ट होते है।। आदि अनेक अन्य रोचक छन्दो का भी उपयोग किया गया प्रकृत मे प्रयोजन मोक्ष का है और उस मोक्षरूपी है । ग्रन्थ का प्रमुग्ध वर्णनीय विषय ध्यान होनेसे यहा उससे महल की सीढ़ियां है अनित्यादि बारह भावनाए। इसीमम्बद्ध घाता- ध्यान के अधिकारी, ध्येय और ध्यान- लिए प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रथमत: उन बारह भावनामो का फल का भी वर्णन किया गया है। निरूपण किया गया है। कर्मरूप सांकलों के तोड़ने का __ध्याना का वर्णन करते हुए ग्रन्थकर्ता ने उस ध्यान के उपाय एक ही है, वह है सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप अधिकारी उन धीर वीर महामुनियों को बतलाया है। रत्नत्रय की प्राप्ति । प्रतः ध्यान की सिद्धि के लिए रत्नजो कामभोगो मे विरक्त होकर अपने शरीर की भोर से त्रय की प्राप्ति को अनिवार्य समझ यहा सम्यग्दर्शन, सम्यगभी निर्ममत्व हो चुके है, जिनका चित्त चपलता को छोड ज्ञान और सम्यकचारित्र का भी वर्णन किया गया है। स्थिरता प्राप्त कर चुका है, तथा जिन्होने सयम की तत्पश्चात् कपाय और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के धुग को धारण कर प्राणो का विनाश होने पर भी फिर लिए उनके स्वभाव का चित्रण किया गया है। कभी उसे नही छोडा है। इसके विपरीत जो लोकानु-: ३. लोकानुग्न पापः कर्मभिगौरवं श्रिताः। रजन करने वाले पापकार्यों को करते हुए अपने को गौर अजिननिजस्वान्ता प्रक्षार्थगहने रताः ।। वान्वित ममझते है, जिनका मन प्रात्मध्यान में नही रगा अनुदधूनमन शन्या प्रकृताध्यागमनिश्चया । है, जो इन्द्रियविषयो में अनुरक्त हो रहे है, जिनके अन्त - पभिन्नभावदुर्लेश्या निपिडा ध्यानसाधने ।। करण मे शल्य नहीं निकल सकी है, अध्यात्म का जिन्हे पृ. ८० श्लोक ४६-४, १ इत्यादिपरमोदाम्पूण्याचरणलक्षिताः । ४ यनित्व जीवनोपय कुर्वन्त. कि न लज्जिताः । ध्यानमिद्धे ममाख्याता पात्र मुनिमहेश्वर ॥ मान पण्यमिवालम्ब्य यथा केचिद् गतघृणा ॥ ८७ श्लोक १७ निस्त्रपा. कर्म कुर्वन्ति यतित्वेऽप्यतिनिन्दितम् । २. ममयमधुग धीरनं हि प्रारणात्ययेऽपि य.। नतो विराध्य सन्मार्ग विशन्ति नरकोदरे । स्याना महत्त्वमालम्ब्य ने हि ध्यान-धनेश्वरा ॥ पृ. ८१ श्लोक ५६-५७ पृ. ८५ श्लोक ४ ५. पृ.९१-१९५.
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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