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________________ भारतीय वास्तुशास्त्र में बैन प्रतिमा संबंधी ज्ञातव्य २०६ क्यूरेटर श्री बालचन्द जैन का एक लेख 'जन प्रतिमा प १४८ श्लो० ५०,८०-में नेमिनाथ को जिनेश्वर कहा लक्षण' नामक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रकाशित हुआ है। गया है ज्योतिप्रसाद जी ने नेमिनाथ के सम्बन्ध में एक उसके बाद महाराणा कुभा के शिल्पी मडल रचित रूप बडा ही अद्भुत संकेत ऋग्वेद से भी निकाला है :मन्डन ग्रन्थ में इस सबधी जो ज्ञातव्य विवरण था वह मैने स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्वदेवाः। 'अनेकान्त' में प्रकाशनार्थ भेज दिया और अब उमी स्वस्ति नस्तायो परिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिबंधातु ।। सिलसिले में डा० द्विजेन्द्रनाथ शक्ल के 'प्रतिमा विज्ञान' । ऋ० १-१-१६, यजु० २५०१६, सा० ३०८ । ग्रन्थ मे जैन सबधी जो विवरण है उसे प्रकाशित किया अस्तु, जैन-धर्म की प्राचीनता के प्रबल अथवा निर्बल जा रहा है प्रमाणो की अवतारणा यहाँ अभिप्रेत नही है इस विषय की जैन वास्तुशास्त्र मबधी ग्रन्थ में ठक्कुर फेरू का विशद समीक्षा उपर्युक्त प्रबन्ध में द्रष्टव्य है हा इतना प्राकृत भाषा का वास्तुमार ग्रन्थ विशेष रूप से उल्लेखनीय हमारा भी प्राकून है कि इस धर्म का नाम 'जैन-धर्म' है जो गुजराती और हिन्दी अनुवाद और विवेचन के माथ वर्धमान महावीर से भी पहले प्रचलित था यह सन्दिग्ध है ५. भगवानदास जैन, जयपुर ने प्रकाशित किया है उन्होने इस धर्म की प्राचीनतम मजा मम्भवत 'श्रामण धर्म' थी हाल ही में मथल रचित 'प्रामादमडन' का सानुवाद और जो कर्मकाण्डमय ब्राह्मण धर्म का विरोधी था इस श्रामण सयन्त्र विशेष सस्करण प्रकाशित किया है दूसरे महत्वपूर्ण धर्म के प्रचारक 'अहंत थे जो सर्वज्ञ रागद्वेष के विजयी, वास्तुशास्त्र सबी ग्रन्थ मुनि कल्याण विजयजी रचित त्रैलोक्य-विजयी सिद्ध पुरूप थे प्रतएव इसकी दूमरी सजा 'कल्याण कनिका' दो भागो में जालोर में प्रकाशित हो 'अहत-धर्म' भी थी, दीघनिकाय में जन-धर्म के अन्तिम चका है। जैन शिल्प के मुनि कल्याण विजयजी एव तीर्थदर वर्धमान महावीर का उल्लेख तत्कालीन विख्यातभगवानदाम जैन विशेष अभ्यामी व जानकार है कतिपय नामा ६ तीर्थरो के साथ निगण्ठनातन के नाम से अन्य जैनाचार्य, मुनि और पडित भी इस विषय की अच्छी किया गया है निगण्ठ अर्थात 'निर्ग्रन्थ' यह उपाधि महावीर जानकारी रखते है पर अभी तक उसका कोई ग्रन्थ को उनकी भव-बधन की अथियो के ग्वल जाने के कारण प्रकाशित हुआ देखने में नही आया । दी गई थी गगद्वेष-स्पी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेन डा० द्विजेन्द्रनाथशक्ल के प्रतिमा विजान ग्रन्थ से जैन के कारण वर्धमान 'जिन' के नाम भी विख्यात हुए, अतएव सबधी विवरण नीचे दिया जा रहा है वर्धमान महावीर के द्वारा प्रचारित यह धर्म जैन-धर्म कह जन-धर्म-जिन-पूजा लाया। जैन धर्म में ईश्वर की कोई प्रास्था नही धर्म प्रचारक' जैन-धर्म को बौद्ध-धर्म का समकालिक अथवा उमसे तीर्थकर ही उनक पागध्य है 'तीर्थङ्कर' का अर्थ मार्गस्त्रकुछ ही प्रचीनतर मनना सगत नही नवीन गवेपणानो एव । प्टा' तथा संघ व्यापक भी है अनुसन्धान से (दे० ज्यौति-प्रसाद जैन Jainism the ___महावीर के पहले पार्श्वनाथ जी ने इस धर्म का विपुल oldest Living Religion) जैन-धर्म कालक्रम से बहुत प्राचीन है। भले ही श्रीयुक्त ज्योति प्रसाद जी के जैन प्रचार किया उनके मूल सिद्धात थे अहिंसा, सत्य, अस्तेय धर्म के प्रचीनता-विषयक अनेक प्राकृत न भी मान्य हो तथा अपरिग्रह जो ब्राह्मण-योगियो (दे० योग-सूत्र) को तब भी वह निविवाद है कि जनों के २४ तीर्थडगे मे ही सनातन दिव्य दृष्टि थी। पार्श्वनाथ ने इसको चार केवल महावीर ही ऐतिहासिक महापुरुष नही थे उनके महाव्रतो के नाम से पुकाग है। महावीर ने इन चारो पहले के भी कतिपय तीर्थङ्कर ऐतिहासिक है जो में पांचवा महावत ब्रह्मचर्य जोडा है पार्श्वनाथ जी वस्त्र म इम्बायपूर्व एक हजार वर्ष से भी प्राचीनतर है पार्श्वनाथ घारण के पक्षपाती थे' परन्तु महावीर ने अपरिग्रह-व्रत की (ई० पू०९वी शताब्दी के पूर्व के तीर्थडुरो मे भगवान् पूर्णता सम्प पूर्णता सम्पादनार्थ वस्त्र परिधान' को भी त्याज्य समझा नेमिनाथ एक ऐतिहासिक महापुरुष थे म. भा. अनु पर्व १-२. श्वेताम्बरी मान्यता है।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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