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________________ २०० अनेकान्त उपलब्ध जैन मूर्ति तो मौर्यकाल से पहले की नहीं मिलती प्रकाशित हो चुके हैं । द्वितीय और पंचम को सन् १९५६ यद्यपि मोहनजोदड़ो, हडप्पा की खुदाई में जैन तीर्थकरों में प्रकाशार्थ लिखा गया प्रत सम्भव है अब प्रकाशित हो जैसी ध्यानावस्थित मूर्तियां प्राप्त हुई है। पर वे जैन गये हों। तदनतर तृतीय भाग के प्रकाशन की योजना थी तीर्थकरों की ही है, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा पता नही उसकी क्या स्थिति अग्रेजी मे Hindu Science सकता. सम्भावना अवश्य है । मथुरा का जैन स्तूप तो of Architecture के नाम ग्रन्थ तैयार होने और शीघ्र बहत ही प्राचीन है। विविध तीथं कल्प प्रादि ग्रन्थों के प्रकाशित होने की सूचना सन् १९५६ मे चतुर्थ भाग में दी अनसार वह सातवें तीथकर श्री सुपाश्र्वनाथ का स्तूप है गई थी। अर्थात् डा० द्विजेन्द्रनाथ शक्ल की वर्षों की जिन्हे जैन मान्यता के अनुसार तो करोडो वर्ष हो गये। साधना तथा विशाल और गम्भीर अध्ययन इस भारतीय पाश्चात्य विद्वानो ने उस देवनिर्मित स्तूप के सबध मे यह वास्तुशास्त्र नामक ग्रन्थ से भलीभांति स्पष्ट हो जाता है अनमान किया है कि जिस समय इसके सबध में उसके देव. डा० शक्ल लखनऊ विश्वविद्यालय के सस्कृत विभाग में है निर्मित होने की बात कही गई उस समय वह इतना पुराना एम. ए. पी-एच. डी. के साथ साहित्यरत्न और काव्यतीर्थ अवश्य था कि लोग उसके निर्माता के संबंध में कुछ भी जैसी उच्चत्तम उपाधिया उन्हें प्राप्त है। जानकारी नही रखते थे ! अर्थात् काफी पुराने समय में भारतीय वास्तुशास्त्र के चतर्थ भाग का नाम है वह बना था। प्रतिमा विज्ञान । इसमें ब्राह्मण बौद्ध और जैन प्रतिमा के भारतीय वास्तुशास्त्र के संबंध मे इतने अधिक ग्रन्थ लक्षण प्रादि की महत्वपूर्ण चर्चा है । प्रारम्भ मे पूजा लिखे गये कि उनकी विवरणात्मक सूची प्रकाशित की जाय परम्पग पर प्रकाश डालते हुये ग्रन्थ के पृष्ठ १३८ से तो भी एक बहुत बड़ा ग्रन्थ बन जायगा। कई वर्ष पूर्व १४० के बीच मे जैनधर्म-जिन पूजा सबधी विवरण नागरी प्रचारिणी पत्रिका में मैने एक वास्तुशास्त्र सबधि दिया है फिर स्थापत्यात्मक-मदिर नामक प्रकरण मे जैन ग्रन्थों की सूची प्रकाशित की थी। उसमे शताधिक ग्रन्थ थे मदिर के संबंध में सक्षेप मे लिखा गया है जिसमे प्राब, पर उसके बाद पूना से प्रकाशित शिल्प ससार नामक पालिताना, गिरनार, मैसूर, मथुरा, एलोरा, खजराहो. पत्रिका में शिल्प संबंधी ग्रन्थो की सूची देखने को मिली देवगड, का उल्लेख किया गया है । इस ग्रन्थ मे लिखा है जिसमे ७५० के करीब ग्रन्थो के नाम थे। वास्तुशास्त्र कि "गुहा मदिरों का निर्माण परम्परा इस देश में इतनी मंबंधी ग्रन्थों मे कई बहुत छोटे से है और कई बहुत बडे। वृद्धिगत हुई कि समस्त देश में १२०० गुहा मदिर बने में नहिं निर्माण या लक्षण संबंधी ही सक्षिप्त जिनमें ६०० बौद्ध, २०० जैन और १०० हिन्दु है।" विवरण है तो कइयो मे मन्दिर प्रादि संबधी विस्तृत ग्रन्थ के उत्तर पीठिका नामक भाग मे जैन प्रतिमा प्रकाश डाला गया है । अभी तक वास्तु शिल्प सबंधी बहुत लक्षण पृष्ठ ३१३ से ३१८ में दिया गया है। परिशिष्ट थोडे से ग्रन्थ प्रकाशित हुये है। प्राचीन ग्रन्थों के साथ में अपराजित पृच्छा से उद्धृत जैन प्रतिमा लक्षण सम्बन्धी साथ कई ऐसे ग्रन्थ भी निकले हैं जो अनेक ग्रन्थों के प्राधार संस्कृत श्लोक पृ० ३३३ से ३३६ में दिये गये हैं जिनकी से तैयार किये गये हैं । हिन्दी भाषा मे लिखे गये इस सख्या ५५ है। विषय के ग्रन्थों मे डा. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल का भारतीय ब्राह्मण और बौद्ध की पूजा, परम्परा और प्रतिमा वास्तुशास्त्र नामक ग्रन्थ बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यह ग्रन्थ लक्षण के सबध में जितना अधिक प्रकाश डाला गया है पांच भागों में प्रकाशित करने की योजना हा० शुक्ल ने उसे देखते हये जैन सबंधी विवरण बहुत सक्षिप्त मालूम बनाई यथा देता है। पर इसका एक मुख्य कारण तो यही है कि इस (१) वास्तु विद्या एवं पुरनिवेश (२) भवन वास्तु सबंध में सामग्री भी बहुत कम मिलती है और वह इतनी (३) प्रासाद (४) प्रतिमा विज्ञान (५) चित्रकला, यंत्र सुलभ भी नहीं है कला और वास्तुकोष । इसमें से प्रथम भोर चतुर्थ भाग 'अनेकान्त' के अगस्त अंक में रायपुर म्युजियम के
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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