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धनपाल विरचित "भविसयत्त कहा" और उसकी रचना-तिथि
डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री
अपभ्रश साहित्य मे "भविसयत्तकहा" अत्यन्त महत्त्व- "अभी तक जो मरभ्रश साहित्य उपलब्ध हुमा है पूर्ण प्रबन्धकाव्य है । भारतवर्ष मे प्रकाशित होने वाला उसमे गद्य पौर दृश्य काव्यों का प्रभाव है। समूचा अपभ्रश का यह प्रथम काव्य ग्रन्थ है । सन १९२३ में यह साहित्य पाठय काव्य के अन्तर्गत है। उनके मुख्य तीन कथाकाव्य गायकवाड़ प्रोरियन्टल सीरिज, बड़ौदा से भेद हो सकते हैं-प्रबन्ध, खण्ड पौर मुक्तक काव्य । जो प्रकाशित हपा था। उस समय तक अपभ्र श-साहित्य के प्रबन्ध-काव्य ग्रन्थ उपलब्ध है, वे मुख्य रूप से कथासम्बन्ध मे बहत ही कम जानकारी मिल पाई थी। इधर काव्य हैं। उनमें कथा पौर काव्य का पदभुत मिश्रण है। अपभ्रश की प्रमुख रचनामों के प्रकाशन से हिन्दी-जगत्
इस काव्यधारा के भी दो भेद है-पुराणकाव्य भौर मे पर्याप्त चर्चा होने लगी है। किन्तु अपभ्रश-साहित्य
चरितकाव्य । चरितकाव्य के दो रूप है-एक शुद्ध या का वास्तविक मूल्याकन अभी तक कई दृष्टियों से नहीं
धार्मिक चरितकाव्य और दूसरा रोमाण्टिक।........... हो सका है। इसका मुख्य कारण यही है कि सम्प्रति
प्रबन्धकाव्य को कथाकाव्य कहना अधिक संगत है, क्योंकि अपभ्रश का अधिकांश साहित्य भण्डारी मे है। जब तक
उममें कथा की ही मुख्यता है । कथा चाहे पौराणिक हो प्रामाणिक रूप मे हिन्दी अनुवाद सहित इस साहित्य के या काल्पनिक ।" सामान्य रूप से डा. जैन अपभ्रश के प्रकाशन की समुचित व्यवस्था नहीं होती तब तक साहित्य प्रकों
प्रबन्धकों को कथाकाव्य कहते हैं । और इसलिए उन्होंने मसार में इमे यथोचित स्थान नही मिल सकेगा। केवल
"णायकुमारचरिउ" की भाति "भविसयतकहा" को कथा
MMS भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी एक ऐसी सस्था है जो
काव्य माना है, जो उनकी दृष्टि मे वास्तव मे रोमाण्टिक अपभ्रंश के प्रकाशन का कार्य हाथ में लिए है, अन्य
चरितकाव्य है । वस्तुत डा. जैन की यह मान्यता अपभ्रंश प्रकाशनों से कोई प्रामार लक्षित नहीं होते। क्योकि हम
की कुछ प्रकाशित रचनामों के प्राधार पर है । अपभ्रंश स्वय इसे महत्वपूर्ण नही समझते । वास्तव में यह भावना
मे अभी तक कई ऐमी हस्तलिखित रचनाएं लेखक की हीन प्रवृत्ति का द्योतन करने वाली है। कुछ प्रकाशक
जानकारी मे है जो उक्त सीमा के अन्तर्गत नहीं पाती। अपने निहित स्वार्थों के कारण तथा व्यापारिक उद्देश्य मे
अपभ्रंश का कथा-साहित्य विषय और परिणाम की दृष्टि इम पोर ध्यान ही नहीं देना चाहते। अतएव समाज मे
मे प्रचर मात्रा में उपलब्ध हुअा है । इसे न तो चरितकाव्य ऐसे सस्थानो की आवश्यकता है जो इस प्रकार का
कह सकते है और न पौराणिक । सामान्य रूप से यह हस्तमहत्त्वपूर्ण कार्य-भार वहन करने में समर्थ हो।
लिखित साहित्य दो रूमो मे मिलता हैअभी हाल में ही भारतीय ज्ञानपीठ मे डा. देवेन्द्रकुमार जैन का शोधप्रबन्ध "अपभ्रश भाषा और मामिय"
सन्धिबदबहत कथानो के रूप में, जो निश्चय ही प्रकाशित हमा है। डा. जैन ने इस कृति में चरितकाव्य प्रबन्धकाव्य है और दूसरे सन्धिबद्ध लघुकथापो के रूप में। और कथाकाव्य मे कोई अन्तर नही माना है। उनके ही
यह समस्त साहित्य पद्यबद्ध है । मन्धिबद्ध होने के कारण शब्दों में
इसमे कथा और काव्यतत्त्व का समान रूप से संयोग है।
इनमें कुछ ऐसी भी रचनाए है जो कविकल्पनाप्रधान या १. डा. देवेन्द्रकुमार जैन : अपभ्र श भाषा और माहित्य, लोकजीवनप्रसूत हैं; जैसे कि जिनदत्तकथा (लाखू कृत १६६५, पृ० ८५ ।
जिणयत्तकहा)। इसी प्रकार के अन्य कथाकाव्यों का