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________________ महाकवि समयसुंदर और उनका 'दान शीलतप भावना सवार लघु कृति मे रूपकात्मक ढंग से दान, शील, तप और गया। श्रेणिक राजा ने गज के भव मे शशक को प्राणभावना-धर्म के इन चारो तत्त्वों का परस्पर विवाद दान दिया जिसके फलस्वम्प उमे मेघकुमार-से पुत्र की प्रदर्शित किया गया है। प्राप्ति हुई५ । इस प्रकार उसने चदनबाला सती का भी प्रारंभ उल्लेख किया। कृति के प्रारभ में मगलाचरण के रूप में महाकवि इमी बीच शील ने उसे टोक दिया–पर, क्यो व्यर्थ ने प्रथम जिनेश्वर ऋपभदेव भगवान का वदन तथा गुरु का अहकार कर रहा है । याचक के साथ तुम्हारा पाठों प्रमाद का स्मरण किया है प्रहर पाडबर का व्यवहार रहता है। तुम्हारा पागे बढना प्रथम जिणसर पय नमी, पामो सुगुरु प्रसाद । क्या अर्थ रखता है ? मब कुछ तो मेरे पीछे है । भला दान सील तप भावना, बोलिसि बहु सवाद ॥ दोहा १॥ सवारी के आगे चलने वाला दास भी कभी राजा हो मकता है६ । कोई जिनेन्द्र का नया ही स्वर्ण मंदिर बनरास का सार वाये और करोड़ों का मोना दान दे तब भी वह मेरी गस का मार इस प्रकार है समता नही कर सकता। शील से समस्त सकट टल एक बार भगवान महावीर राजगृह के उद्यान में जाते है, यश और सौभाग्य की प्राप्ति होती है तथा देव. ममोसरे (पधारे) । जब वे बारह परिषदों को उपदेश तानो का सान्निध्य प्राप्त होता है। यही क्यो, शील-व्रतदेने वाले थे कि दान ने उनसे कहा-प्रभो ! मै बडा हूँ चारी को न तो माप छ सकता है, न अग्नि जला सकती एतदथं व्याख्यान में पहले मेरा माहात्म्य बतलाये १। और है तथा न अन्य भीषण वन्य प्राणी ही भयभीत कर उसने बड़े दर्प के साथ अपने साथियों से कहा-सब सुन मकते है। लो, है कोई मेरे समान महान ? दीक्षा-प्रसग पर भगवान तत्पश्चान् शील भी दान की तरह डीग हाकते हुए भी पहले दान देते है। दाता का प्रातःकाल उठते ही नाम उन समस्त नर-नारियो का जिक्र करता है जिनका उसके स्मरण किया जाता है और उसकी मनोकामना तो सिद्ध द्वारा उद्धार हुआ है । वह कहता है-जगद्विख्यात कलह होती है। समस्त संसार को वश मे करना मेरे लिए कराने वाला और भ्रमणशील नारद को मैंने सिद्धि दी। जरा-सी बात है । मुझ जैसा ऋद्धि-समृद्धि का दाता भी रावण के घर से आई सीता को अग्नि-परीक्षा में पावक मंसार मे कोई नही३। को पानी बनाकर मैंने ही मफलता दिलाई थी। पांडवों तत्पश्चात् वह उन महान प्रात्मानो का नामोल्लेख ४. प्रथम जिणेसर पारणइ, श्री श्रेयांसकुमार । करता है जिसका कि निस्तार दान के द्वारा हुप्रा था सेलडि रस विहराविय उ, पाम्यउ भवनउ पार ॥११७ मुमुख नामक गाथापति, चक्रवर्ती भरत, शालिभद्र को ५. गज भव ससिलउ राम्बियउ, करुणा कीधी सार । मेरे ही प्रसाद मे ही सुख मिला। मूलदेव उडद के बालको श्रेणिक नइ घरि मवतयंउ, अगज मेघकुमार ॥१॥१० के दान द्वारा राजा बन गया। भगवान ऋषभदेव को इक्षु ६. गर्व मकर रे दान तूं, मुझ पूठह सह कोय । रम का पारणा कराने से श्रेयासकुमार भवसागर से तर चाकर चालइ प्रालि, नउ स्यु राजा होइ ॥११३ १. बइठी बारह परषदा, सुणिवा जिणवर वाणि। ७. जिन मदिर सोना तणउ, नवउ नीपावइ कोय । दान कहइ प्रभु हूँ बडउ, मुझ नइ प्रथम बखाणि ॥ सोवन कोडिको दान द्याइ, सील समउ नहि कोय ।।१।४ प्र. दो०३ ८. सीलइ सर्प न प्रामडइ, सीलइ सीतल मागि। २ प्रथम पहरि दातार न, ल्याइ सह कोई नाम । सीलइ परि करि केसरी, भय जायइ मब भागि ॥११६ दोधां री देवल चडइ, सीझर वंछित काम ॥११५ ९. कलिकारक जगि जाणियइ, ३. दान कहा जणि है बडउ, मुझ सरिखउ नही कोय। बलि विरति नही पणि काइ रे। रिद्धि समृद्धि सुख संपदा, दानह दउलति होय ॥२२ ते नारद महमीभव्य उ, मुझ जोवनए अधिकाइ रे ।।२
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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