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________________ १४२ अनेकान्त द्वारा हरी गई द्रोपदी को लज्जा एक सौ पाठ बार वस्त्र निस्तार किया है। प्रदान कर मैंने ही बचाई थी। इनके अतिरिक्त वह इन तीनों का विवाद प्रभी समाप्त ही नहीं हुआ कि सती कलावती,सुभद्रा, सुदर्शन सेठ, सनाह मत्रीश्वर ; सती- भाव बीच में ही कूद पडा-अरे तुम तीनों क्यो भूठा ग्राही, चन्दनबाला, चेटानरेश की सातो पुत्रियो, राजि. अभिमान करते हो। महान लोग कहते पाये है कि धर्म मती और कुती इत्यादि की भी इस संबंध मे चर्चा करता मे भाव ही प्रमुख होता है बाकी सब गौण५। इस बात का साक्षी तो व्याकरणवेत्ता ही दे देगे कि तुम लोग नपुसक शील की बात काटकर तप उससे कड़क कर बोला- हो अतः मेरे प्रभाव में प्राप से कुछ भी कार्य संपन्न नही तू बढ-वड कर क्यो बोल रहा है, मेरे सामने तुम्हारी क्या हो सकता। रस के बिना कनक की उत्पत्ति, जल के औकात है ? तुने स्वादिष्ट भोजन, मधुर तान और बिना वृक्षों में वृद्धि और लवण के बिना जैसे भोजन में शरीर-मज्जा का तो परित्याग कर रखा है। प्रानंद नाम स्वाद नही पा पाता उसी प्रकार मेरे बिना किसी को की तो तुम्हारे पास चीज ही क्या है ? नारी से डरने सिद्धि भी नहीं मिल सकती। मंत्र, तत्र, मणि, औषधि वाला तथा भूठ-कपट द्वारा ज्यो-न्यो करके प्राण बचाने तथा देवता, धर्म और गुरू की सेवा मे यदि भावना का वाला तू कायर क्यो बाते बघार रहा है ? तुम्हारा समावेश नही हा तो ये कदापि फलदायी नहीं होते७ । सम्मान तो विरला ही करता है क्योकि तू यदि नष्ट होता तुम लोगो ने अभी जो अपने वृत्तांत कहे उनमे यदि भाव है तो चारों को भी साथ ले बैठता है। और इधर मैं ! नहीं होता तो सिद्धि मिलती ही नहीं। और मैंने, मैने मेरा स्पर्श पाकर तो कुष्ट आदि रोग भी हवा हो जाते अकेले ही बहुत से नर-नारियों को मुक्ति दिलाई है, जरा है। उनम तप से अट्ठाईस लब्धियां उत्पन्न होती है। सावधान होकर उनके नाम भी मुन लो। और वह नाम मैंने जिन्हे तारा है उन्हें जानकर तू पाश्चर्यचकित रह सुनाने लगता है जो इस प्रकार है-प्रसन्नचंद्र ऋषि, इला जायगा । ले सुन पुत्र करगडू अणगार, कपिल, प्रतगड केवली, खदकसूरि के सात मनुष्यो को सदैव मौत के घाट उतारने वाले शिष्य. चडरुद्र, मगावती, मरुदेवी. दुगता, भरत, प्राषाढअर्जनमाली के घोर पापो का पलायन करके मैन ही " भूति, गजसकमालय, पृथ्वीचद ग्रादि । जति उसके कठोर कर्मो को काटा है४ । इसी तरह ___ इसा तरह भगवान महावीर अब तक इन चारो का विवाद सुन नंदिषण, हरिकेशी चडाल, विष्णुकुमार, धन्ना प्रणगार, रहे थे। उन्हे धर्म-कर्म के संबंध मे झगडते रहना भला ढंढरण ऋषि और बलभद्र प्रादि अनेक तपस्वियो का मैने तीनों को टीवनदा में विरत होने १. पहिरण चीर प्रगट कीया, मइ पदोत्तर-मदवारो रे। का उपदेश देने लगे-निदक जैसा पापी कोई नहीं होता। पाडव हारी द्रपदी, मइ राखी माम उदागेरे॥२५ चंडाल की तरह होता है वह । उसका मुंह तक कोई नहीं २. सरसा भोजन तइ तज्या, न गमइ मीठी नाद। देखना चाहता । इसलिए पाप परानदा पार पा देह तणी सोभा तजी, तुझ नइ किस्यउ सवाद ॥२/२ परित्याग कीजिए। अपने-अपने स्थान पर रहने से ही नारि थकी डरतउ रहइ, कायरि किस्बउ बखाण। ५. दान सील तप साभलउ, म करउ भूट गुमान । कड कपट बहु केलवी, जिम तिम राखइ प्राण ॥३ लोक सह बड़े साखि ये, धरमई भाव प्रधान ।।३/४ को विरलउ तुझे पादरइ, छाडइ सहु संसार । इ सहु संसार । ६. आप नपुसक सहु त्रिण्हे, द्यइ व्याकरणी सावि । एक पाप तु भाजतउ, बीजा भाजइ च्यार ॥४ काम सरइ नही को तुम्हे, भाव भरगइ भो पाखि ॥३/५ ३. मुझ कर फरसइ उपसमइ, कुष्टादिक ना रोग। ७. मत्र, तंत्र, मणि औषधि, देव धरम गुरु सेव । लबधि अट्ठावीस ऊपज.इ, उत्तम तप सयोग ॥२/ भाव बिना ते सवि वृथा, भाव फलइ नितमेव ॥३/७ ४. सात माणस नित मारतउ, करतउ पाप प्रघोर हो। ८. दीक्षा दिन काउसगि राउ, गयसुकमाल मसाणि । परजनमाली.मई ऊपरयो, छेद्या करम कठोर हो ।३/३ सोमिल सीस प्रजालीउ रे, सिद्धि गयउ सुहभाणि ।४/१७
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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