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________________ अनेकान्त नववें कवि भगवतीदास हैं, जो बूढ़िया१ जिला प्रस्तुत राजावली शाहजहां के राज्यकाल तक की है। अम्बाला के निवासी थे। भगवती दास का कुल प्रग्रवाल तीसरी रचना चुनड़ी है जिसे कवि ने सं० १६८० में और गोत्र 'वंसल' था। इनके पिता का नाम किसनदास बनाकर समाप्त किया था। चौथी रचना लघुसीतासतु१ था। इन्होंने चतुर्थवय में मुनिव्रत धारण कर लिया था। और पांचवीं रचना अनेकार्य नाममालार जो सं० १९८७ भगवतीदास बढ़िया से देहली मा गये थे और दिल्ली के में रची गई है। कवि ने अनेकार्थ नाममाला और अन्य कई काष्ठा संघी भटारक मूनि महेन्द्रसेन के शिष्य हो गये, रचनाएँ 'सिहरदि' नगर में रची है जो इलाहाबाद के पास थे, जो भट्टारक सकलचन्द्र के प्रशिष्य थे३ । भगवतीदास गंगा नदी के तट पर बसा हुमा था। वहां जैन मन्दिर ने हिन्दी साहित्य की अपूर्व सेवा की है मापकी समस्त पोर अग्रवाल जैनों के अनेक घर थे। कवि ने वहां रह उपलब्ध रचनाएं सं० १६५१ से सं० १७०४ तक की उप- कर अनेक रचना रची है, जिनमें उक्त नगर का उल्लेख लब्ध होती हैं। इससे प्राप दीर्घजीवी जान पड़ते हैं। है। छठी रचना ज्योतिष सार है जिसे कवि ने शाहजहां उनकी पाय ७५-८० वर्ष से कम नहीं जान पडती, पाप के राज्यकाल में हिसार के वर्षमान मन्दिर में सं० १६१४ की प्रायः सभी रचनाएं पद्यों में रची गई हैं जिनकी संख्या में रचा था३ । सातवीं रचना मृगांक लेखाचरित है जिसे ६. से ऊपर है। उन रचनात्रों के नाम इस प्रकार हैं- कवि ने संवत् १७०१ में बना कर समाप्त किया था। १. अगलपुर जिन बन्दना (१६५१) एक ऐतिहासिक यह अपभ्रंश भाषा की रचना है, इससे हिन्दी के विकास 'रचना है जिसमें उक्त संवत् में प्रागरा के ४८ जिन - मन्दिरों प्रादि का वर्णन दिया है, रचनाकाल सं० १६५१ सोलह सइ सतसीह सुसवति जानिए, है जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है जेठनि जलसिय मासि बुधउ मन मानिए । "संवत् सोलह साइक्यावन, रविविन मास कुमारी हो। अगरवाल जिन भवनि पुरि सिहरदि भली, जिनचंदन करिफिरि परिमाए, विजयसमिरजयारी हो।' महा कवि सुभगोतीदास भनी राजाबली ॥६६॥ दूसरी रचना दिल्ली की 'दोहाराजावली' है, जो -दिल्ली राजावली ऐतिहासिक पद्यबद्ध रचना है और जिसका रचनाकाल १. संवतु सुनहु सुजान, सोलह सइ जु सतासिया । (१६८७) और वह सिहरदि नगर में रची गई है। चैति सुकल तिथि दान, भरणी ससि दिन सो भयो। -सीतासतु १. बुढिया पहले एक छोटी-सी रियासत थी, जो धन २. सोलह सयरु सतासिया, साढि तीज तम पाखि । धान्यादि से खूब समृद्ध नगरी थी। जगाधरी के बस गुरु दिनि श्रवण नक्षत्र भनि, प्रीति जोगु पुनि भाखि।। जाने से बूड़िया की अधिकांश प्रावादी वहां से चली साहिजहां के राजमहि, 'सिहरदि' नगर मझार । पाई, मात्र कल वहां खंडहर अधिक दिखाई देते है अर्थ अनेक जुनाम की, माला भनिय विचारि ॥६. जो उसके गत वैभव के सूचक हैं। -अनेकार्थ नाममाला २. किसनदास पणिउ तनुज भगौती, ३. वर्षे षोडश शत च नवति मिते श्री विक्रमादित्यके, तुरिये गहिउ व्रत मुनि जु भगोती। पंचम्या दिवसे विशुद्ध तरके मास्याश्विने निर्मले । नगर बूढिये वसं भगौती, जन्मभूमि है प्रासि भगौती। पक्षे स्वाति नक्षत्र योग सहिते वारे बुषे संस्थिते, अग्रवाल कुल बंसल गोती, पंडित पद जन निरख भगौती। राजत्साहि सहावदीन भुवने साहिजहां कथ्यते॥ -वृहत् सीतासतु -ज्योतिषसार प्रशस्ति ३. सकमचन्द तिस पट्टभनि, भवसागर तार । तासु पट्ट पुनि जानिये, रिसिमुनि माहिंदसेन । ४. सगबह संवदतीह तहा विक्कमराय महप्पए । भट्टारक भुवि प्रकट वसु, जिनि जितियो रणि मनु । प्रगहणसिय पंचमि सोमदिणे पुण्ण ठियर प्रवियप्पए। -प्रमेकार्थ नाममाला -मृगांकलेखा चरित
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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