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अनेकान्त
अत एव उसीसे प्रेरित होकर हमें जो उसकी स्थिति दिखी फिर अपनी समझ के अनुसार ही किया गया है। (सस्ती ग्रं. है उसे विना किसी पक्षव्यामोह के स्पष्ट करने का प्रयल मा. संस्करण में पृ. ७८ पर जो उसका 'सो इहाँ इष्टहमने यहां किया है। जहां तक हम समझ सके है उक्त पना है' ऐसा स्पष्टीकरण किया गया है वह जैन ग्रन्थ दोनों संस्करणों में से किसी में भी बुद्धिपूर्वक अर्थ- रत्नाकर द्वारा प्रकाशित संस्करण (पृ. ७५) के अनुसार विपर्यास या भावविपर्यास का प्रयत्न नहीं किया गया। किया गया है, नया मन्दिर दिल्लीकी एक हस्तलिखित प्रति मूल प्रति की अपेक्षा जो उनमें यत्र स्वचित् भेद दिखता
में 'नीठि' को लिखकर तत्पश्चात् उसके स्थान मे 'रोग' है वह असावधानी-विशेष कर प्रूफ संशोधन की असाव
लिखा गया है।) धानी-या अन्य हस्तलिखित व मुद्रित प्रतियों का प्राश्रय
__ पृ. ६३ पं. २५ में जो फोटो प्रिंट प्रति (पृ. ७३) की लेने से हुआ है । जैसे
अपेक्षा अधिक अश पाया जाता है वह सम्भवतः सस्ती ग्रंथ सोन. सं. पृ०.८५ पर मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान माला संस्करण (पृ. ६१) से लिया गया है। जैन ग्रं. र. का क्रमवैपरीत्य, प०११५-२० में जो ज्ञानयोग और द्वारा प्रकाशित संस्करण (प.५८) मे भी वह अंश पाया भत्तियोग प्रकरणों में पौर्वापर्य की विपरीतता हुई है जाता है। वह मूल प्रतिमें श्री पं. टोडरमल जी द्वारा की गई सूचना प. १३५ पर फो. प्रिं. प्रतिगत (पृ. १६४) 'होउ (?) (फो. प्रि० पृ० १३७, पं०६) को सावधानी से न पढ लोही' का अनुवाद 'हाड़, रक्त' किया गया है। न. मं. सकने के कारण हुई।
दिल्ली की एक प्रति (पत्र ६१) में भी 'हाड़' पाया जाता प्रफ संशोधन की असावधानी मे जैसे
है। स. ग्रं. संस्करण (पृ. १६८) में 'होउ' को छोड दिया सो. ग. पृ. ६५--'उसी प्रकार' इत्यादि लगभग २ गया व 'लोही' के स्थान मे लोहू लिखा गया है। इत्यादि । पंक्तियां दुवारा छप गई है, पृ. १००-समवायसम्बन्ध
अन्त मे ग्रंथ की इस परिस्थिति को लक्ष्य में रखते (सयोगसम्बन्ध), पृ. १५५--मान (माया), पृ. १८२
हए हमाग उभय पक्षसे यही नम्र निवेदन है कि इस इक्षुफल (इक्षुफूल.). पृ. १८५ गुरुप्रो की (गुणन की),
विवाद में कुछ तथ्य नहीं है, उसे समाप्त कर दिया जाय। इत्यादि।
भूल होना कुछ असम्भव नहीं है । पर भूल को भूल मान दिल्ली संस्करण में ऐसी अशुद्धियो के लिए अन्त में
उसे परिमाजित कर लेना कठिन होते हुएभी महत्त्वपूर्ण है। २१ पृ. का लम्बा शुद्धिपत्र ही दे दिया गया है।
शान्ति व स्व-परहित भी उसी में है। भूल को पुष्ट करते अन्य प्रतियों के माश्रय से जैसे---सो. स. पृ. ५४ पर रहने से वातावरण कभी शान्त नही बन सकता। वि मूल प्रतिगत (फो. पृ. ६२). सो इहां नीठि पावना' का वादीभमिह की यह यथार्थ उक्ति बहुत ही महत्त्वपूर्ण है-- 'सी यहा कठिनता से प्राप्त होने के कारण' यह स्पष्टीकरण अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोष प्रपश्यता । या तो किसी अन्य प्रति के प्राश्रय से किया गया है या
कः समः खलु मुक्तोऽय युक्तः कायेन चेदपि ।'
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