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________________ अनेकान्त काव्य है। परन्तु लेखकों की कृपासे उसमें प्रत्यधिक पाठ को दिखलाते हुए उसका त्याग करने की प्ररणा की गई भेद उपलब्ध होते हैं उनसे ऐसा लगता है कि संभवतः. है और बतलाया है कि जिस तरह अन्धा मनुष्य प्रास कवि ने ही उसे संक्षिप्त किया हो, कुछ भी हुमा हो, पर की शुद्धि-अशुद्धि सुन्दरतादि का अवलोकन नहीं कर उसके सम्बन्ध में अभी अन्य प्राचीन प्रतियों का अन्वेषण सकता। उसी प्रकार सूर्य के प्रस्त हो जाने पर रात्रि में करना प्रावश्यक है, जिससे परिस्थिति का ठीक पता चल भोजन करने वाले लोगों से कीड़ी, पतंगा, झींगुर, चिउंटी, सके । कवि ने इस काव्य को सं० १४११ में बनाया हैं। डांस, मच्छर प्रादि सूक्ष्म और स्थूल जीवों की रक्षा नहीं कथानक पतिरंजित है, फिर भी कवि ने उसे संक्षेप में हो सकती। बिजली का प्रकाश भी उन्हें रोकने में समर्थ रखने का यत्न किया है। नहीं हो सकता। रात्रि में भोजन करने से भोजन में उन जब गणधर से द्वारिका के १२ वर्ष में विनाश होने, विर्षले जन्तुषों के पेट में चले जाने से अनेक तरह के रोग हो जाते हैं। उनसे शारीरिक स्वास्थ्य को बड़ी हानि कृष्ण भौर हलघर के बचने और जरत्कुमार के हाथ से पहुंचती है। अतः शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से तथा कृष्ण की मृत्यु का समाचार ज्ञात कर कुंवर प्रद्युम्न ने जिन वैद्यक और धार्मिक दृष्टि से रात्रि भोजन का परिहार दीक्षा लेने का विचार किया तब श्रीकृष्ण ने मना किया। करना श्रेयस्कर है। कवि का समय १५वीं शताब्दी जान पौर कहा कि तुम द्वारिका का राज्य करो। तब कुमार ने जो उत्तर दिया वह बड़ा सुन्दर है : पड़ता है। चिन्तायुक्त भयो परदुबन, दीक्षा लं कीन्हाँ तपचरन् । चौथे कवि वीरु है, जो अग्रवाल कुल में उत्पन्न हुए विलक्ष वदन बोले नारायन हमको साथ पुत्त परदुवन। थे । मोर शाह तोतू के पुत्र थे। तथा भट्टारक हेमचन्द्र के कवन बुद्धि उपजी तुहि माज, तू लेहि द्वारिका भुंज राजु। शिष्य थे। कवि ने 'धर्मचक्र पूजा' सं० १५८६ में रोहतकर तू राजधुरंधर जंठो पुत, तो विद्याबल प्रहिबह तत्तु । तेरो पौरुष जान सब कवनु, १. जिहि दिट्ठि णय सरइ बंधु जेम, जिम त लेहि सो पुत्तु परखुवनु । नहि गास-सुद्धि भणु होय केम । किमि-कीड-पयंगइ भिंगुराइ, नारायन के वचन सुनेहि, ताप कंदपु उत्तर देहि। पिप्पीलई डंसइ मच्छिराई। काको राजु भोगु परवाह, सुपनंतर है यह संसार। खज्जरइ कण्ण सलाइयाई, काको बालक पौरुष घनों, काको बाप कुटुंब मुहितनों। प्रवरइ जीवइ जे बह सयाई। मन्नाणी णिसि भुंजंतएण, इस तरह अन्य के अनेक कथन सुन्दर पौर सरस है। . भाषा में अपभ्रंश और देशी भाषा के शब्दों की बहुलता पसुसरिसु धरिउ अप्पाणु तेण। है। ग्रन्थ का मनन करने से हिन्दी के विकास का मौलिक पत्ता-जं वालि विदीणउ करि उज्जोवउ रूप सामने मा जाता है।। महिउजीउ संभवइ परा। तीसरे कवि हरिचन्द हैं। जो अग्रवाल कुल में उत्पन्न भमराह पयंगई बहुविह भंगई • मडिय दोसह जित्यु धरा ।। हुए थे। कवि के पिता का नाम 'जंड' पौर माता का नाम -जंन ग्रन्थ प्रशस्ति सं० भा० २ पृ० ११५। 'वील्हा' देवी था। यह कहां के निवासी थे और इनकी गुरु परम्परा क्या है ? यह कृति पर से कुछ ज्ञात नहीं २. रुहितासपुर रोहतक का नाम है । यह हरियाना प्रदेश होता । कवि की एक मात्र कृति 'प्रणयमियकहा' है, जो में है, और यहां अग्रवाल जाति के सम्पन्न लोग अपभ्रंश भाषा में रची गई है। उक्त कथा में १६ कडवक निवास करते हैं । १६वीं शताब्दी में अनेक विद्वानों दिये हुए है जिनमें रात्रि भोजन से होने वाली हानियों द्वारा अन्य रचना की गई है।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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