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अनेकान्त
पच: संयत, जितेन्द्रिय, प्राकांक्षा-रहित, चपलता-रहित स्कन्दक तपस्वी को बोलने में ही नहीं, बोलने का और संयमरत थे।
मन करने मात्र से ही क्लान्ति होने लगी। अपने शरीर वे स्कन्दक भिक्षु स्थविरो के पास अध्ययन कर एका- की इस क्षीणावस्था का विचार कर वे महावीर के पास दश अंगों के ज्ञाता बने । उन्होंने भिक्षु की द्वादश प्रतिमा प्राये उनसे आमरण अनशन की प्राज्ञा मागी । अनुज्ञा पा, माराधी। भगवान महावीर से प्राज्ञा लेकर गुणरत्नसंवत्सर परिचारक भिक्षुमो के माथ विपुलाचल पर्वत पर पाये, तप तपा। इम उत्कृट तप से उनका सुन्दर सुडौल और यथाविधि अनशन ग्रहण किया। एक मास के अनशन से मनोहारी शरीर रूक्ष, शुष्क और कृश हो गया। चर्म- काल-धर्म को पा अच्युत्कल्प स्वर्ग में देव हुए। महावीर वेष्टित हडिया ही शरीर में रह गई । जब वे चलते, के पारिपार्श्विको में उनका भी उल्लेखनीय स्थान रहा है। उनकी हड़ियाँ शब्द करती; जैसे कोई सूखे पत्तों से भरी पचमाग भगवती सूत्र में उनके जीवन और उनकी साधना गाडी चल रही हो, कोयलो से भरी गाडी चल रही हो। पर सविस्तार प्रकाश डाला गया है। वे अपने तप के तेज से दिप्त थे।
महावीर की भिक्षुग्गियो में चन्दनबाला के अतिरिक्त 1. भगवती सूत्र, श० २, उ० १
मृगावती, देवानन्दा, जयन्ती, सुदर्शना प्रादि भनेक नाम 2. तए णं से अणगारे तेण उरालेणं, विउलेणं उल्लेखनीय है। महागाभागेणं तवोकम्मेण मुक्के, लक्खे, निम्ममे, पट्टि
महावीर और बुद्ध के पारिपाश्विक भिक्ष-भिक्षणियो चम्मावणद्धे, किडिकिडियाभूए, किमे, धमणि, संवए जाए
को यह सक्षिप्त परिचय-गाथा है। विस्तार के लिए इस यावि होत्या। जीव-जीवेण गच्छइ, जीव जीवेण चिठ्ठइ,
दिशा में बहुन अवकाश है। जो लिखा गया है, वह तो भासं भासित्ता वि गिलाइ, भाम भासमारगे गिलाइ, भासं
प्रस्तुत विषय की झलक मात्र के लिए ही यथेष्ट माना भासि-स्सामीति गिलायति । से जहानामए कदसर्गाच्या इ
।।स जहानामएसमारा जा सकता है। वा, पत्तसगडिया इवा, पत्त-तिल-भंड सगडिया इ वा, एरडकट्टसडिया इ वा, इंगालमगडिया इ वा उण्हे दिण्णा अवचिए मंसमोणिएणं, हयामणे विव भामारासिपडिच्छणगो मुक्का ममापी समगच्छद, ससहचिट्ठइ, ऐवा मेव खदए तवेणं, तेएणं, तव तेयगिरीए अतीव अतीव उवमोभेमागो वि अणगारे ससद्द गच्छइ, ससद्द चिट्ठइ, उवचिए तवेणं, चिट्टइ।
-भगवती मूत्र, श० २, उ०१
जाए
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राजा श्रेणिक या बिम्बसार का आयुष्य काल
( पं. मिलापचन्द कटारिया ) जैन शास्त्रो में राजा श्रेणिक की भायु के विषय में "राजा कुणिक को श्रीमती राणी से श्रेणिक नाम कही कोई स्पष्ट निर्देश नहीं मिलता है कि उनकी कितनी का पुत्र हुमा । राजा के और भी बहुत से पुत्र थे। राजा प्रायु थी । तथापि उनके कथा प्रसगों से उनकी मायु का ने एक दिन सोचा कि इन सब पुत्रों में राज्य का अधिकारी पता लगाया जा सकता है। इस लेख में हम इसी पर कौन पुत्र होगा ? निमित्तज्ञानी के बताये निमित्तो से राजा चर्चा करते हैं :
को निश्चय हुमा कि एक श्रेणिक पुत्र ही मेरे राज्य का उत्तरपुराण के ७४ वे पर्व में राजा श्रेणिक का उत्तराधिकारी बनेगा। तब राजा ने दायादों से अंगिक चरित्र निम्नप्रकार बताया है :
की रक्षा करने के लिये श्रेणिक पर बनावटी क्रोध करके