SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७४ अनेकान्त परिष्कृत रूप यशस्तिलक में उपलब्ध होता है। यशस्तिलक में प्रयत्नपूर्वक किया है। उनका उद्देश्य था यशस्तिलक की यह अन्यतम विशेषता है कि प्राचीन कि दशमी शताब्दि तक की अनेक साहित्यिक और सांस्कृभारतीय वाङ्मय में संभवतया यह प्रथम और अकेला तिक उपलब्धियों का मूल्यांकन तथा उस युग का सम्पूर्ण ग्रथ है, जिसकी कथावस्तु को दुग्वान्त माना जा सकता है। चित्र अपने ग्रन्थ में उतार दें। नि मदेह सोमदेव को अपने काव्य के विशेप गुणो के अतिरिक्त यशस्तिलक में को इस उद्देश्य में पूर्ण सफलता मिली। यशस्तिलक जैसे इस मी प्रचुर मामग्री है, जो इसे प्राचीन भारत के मास्कृतिक महनीय ग्रन्थ की रचना दशमी शती की एक महत्त्वपूर्ण इतिहास की विभिन्न विधाओं से जोड़ती है। पुरातत्त्व, उपलब्धि है। सामग्री की इस विविधता और प्रचुरता के कला इतिहास और साहित्य की मामग्री के साथ तुलना । कारण यास्तिलक को स्वय सोमदेव के शब्दो में एक करने पर इसकी प्रामाणिकता और उपयोगिता और भी और योगिता और भी महान् अभिधान कोण कहना चाहिए। परिपुष्ट होती है। एक बड़ी विशेषता यह भी है कि सोम- यशस्तिलक में सामग्री की जितनी विविधता और देव ने जिम विषय का स्पर्श भी किया उस विषय में प्रचुरता है, उतनी ही उसकी शब्द सम्पत्ति और विवेचन पर्याप्त जानकारी दी। इतनी जानकारी कि यदि उमका शैली की दुरूहता भी। इसलिए जिम वैदुग्य और यत्न विस्तार में विश्लेपण किया जाये तो प्रत्येक विषय एक के साथ सोमदेव ने यशस्तिलक की रचना की शायद ही लघुकाय म्वनन्त्र ग्रन्थ नैयार हो सकता है। यशस्निलक उमसे कम वैदुप्य और प्रयत्न यशस्तिलक के हार्द को पर श्रीदेव कृत यशस्तिलक पजिका नामक एक सक्षिप्त समझने मे लगे। मभवतया इम दुरुहता के कारण ही सस्कृत टीका है। इसे सस्कृत टिप्पण कहना अधिक उप- यगस्तिलक याचारण पाटको की पहुँन में दूर बना पाया, युक्त होगा। यद्यपि इनके ममय का ठीक पता नही चलता पर दक्षिण भाग्न से लेकर उनर भारत, गजस्थान और फिर भी ये सोमदेव में अधिक बाद के नही लगते । मोल- गुजरात के शारत्र भण्डाग में उपलब्ध यगम्तिलक की हवी गती में श्रुतसागर मूरि ने यशस्तिलक चद्रिका नामक हस्तलिग्विन पाण्डुलिपियाँ म बात की प्रमाण है कि मंस्कृत टीका लिग्वी। यह लगभग माई चार पाश्वासो पर पिछली शताब्दियों में भी यगम्तिलक का सम्पूर्ण भारतवर्ष है। सभवतया वे इस पूरा नहीं कर मके। श्रीदेव ने में मूल्याकन हुआ। पंजिका में यशस्तिलक के विषयों को इस प्रकार गिनाया बीमवी शती में पीटरसन और कीथ जैसे पाश्चात्य विद्वानों का ध्यान यतिलक की महत्ता और उपयोगिता १ छन्द, २ शब्द निषटु, ३ अलकार, ४ कला, की ओर आकर्षित हुया है। भारतीय विद्वानों ने भी अपनी ५ मिद्धान्न, ६ सामुद्रिक ज्ञान, ७ ज्योतिप, ८ वैद्यक ह वेद इम निधि की मोर अब दष्टि डाली है। १. वाद, ११ नाट्य, १२ काम, १३ गज, १४ अश्व, सम्पूर्ण यस्तावक श्रुतमागर मूरि की अपूर्ण मस्कृत १५ आयुध, २६ तर्क, १७ पाख्यान, १८ मत्र, १९ नीति, टीका के साथ दो जिन्दो में अब तक केवल एक बार २. शकुन, २१ वनस्पात, २२ पुगण, २३ म्मृति, २० लगभग माठ वर्ष पूर्व निर्णयसागर प्रेम, बम्बई में प्रकाशित मोक्ष, २५ अध्यात्म, ०६ जगतस्थिति और २७ प्रवचन ।। हुआ था। तीन आवासो का पूर्व खण्ड सन् १९०१ मे यदि श्रीदेव के अनुमार ही यशस्तिलक के विपयो का और पाच पाश्वामो का उत्तर खण्ड सन् १६०२ में । पूर्व वर्गीकरण किया जाये तो इस सूची में कई विपय और ग्वण्ड मन् १९१६ म पुनर्मुद्रित भी हुआ था। इस मस्करण जोड़ने होगे । जैसे-भूगोल, वास्तुशिल्प, यन्त्रशिल्प, चित्र- मे पाठ की अशुद्धियों है। उनरखण्ड मे तो अत्यधिक है। कला, पाक विज्ञान, वस्त्र और वेशभूपा, प्रसाधन सामग्री मन् १९४६ में बम्बई से केवल प्रथम प्राश्वास श्री जे. और ग्राभूषण, कला विनोद, शिक्षा और माहित्य, वाणिज्य एन. क्षीरसागर द्वाग अग्रेजी टिप्पण आदि के साथ और सार्थवाह, सुभाषित आदि। सम्पादिन होकर प्रकाशित हुआ था । मन् १९४६ मे शोला इम सूची के कई विषयो का समावेश मोमदेव ने पुर से प्रो. कृष्णकान्न हन्दिकी का 'यशरितलक एण्ड
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy