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________________ १६२ अनकान्त दिया । उन्हें भगवान् के परिनिर्वाण का सम्वाद मिला । इन्द्रभूति के श्रद्धा-विभोर हृदय पर वज्राघात-सा लगा । अपने आप बोलने लगे "भगवन् ! यह क्या किया ? इस अवसर पर मुझे दूर किया। क्या मैं बालक की तरह मापका अंचल पकडकर ग्रापको मोक्ष जाने से रोकता ? क्या मेरे स्नेह को अपने कृत्रिम माना? मैं साथ हो जाता, तो क्या सिद्ध शिला पर संकीर्णता हो जाती ? क्या मैं आपके लिए भार हो जाता ? मैं अब किसके चरणों में प्रणाम करूँगा ? किससे अपने जगत् और मोक्ष विषयक प्रश्न करूंगा ? किसे मैं "दहूँगा? मुझे अब कौन गौतम ! गौतम !" कहेगा ?" इस भाव-विहुलता में बहते बहते इन्द्रभूति ने अपने आपको सम्हाला सोचने लगा-"अरे यह मेरा कैसा मोह ? वीतरागों के स्नेह कैसा ? यह सब मेरा एक पाक्षिक मोह मात्र है। बस ! अब मैं इसे छोड़ता हूँ । मैं तो स्वयं एक हूँ । न मैं किसी का हूँ । न मेरा यहाँ कुछ भी है । राग और द्वेप विकार मात्र है । समता है । समता ही श्रात्मा का चालम्बन है ।" इस प्रकार आत्मरमण करते हुए इन्द्रभूति मे तत्काल केवल्य प्राप्त किया। जिस रात को भगवान् महावीर का परिनिर्वाण हुआ, उस रात को नव मल्लकी नव लिखवी पठारह काशी - कौशल के गणराजा पौषध व्रत मे थे२ । निर्धारण कल्याणक भगवान की अन्त्येष्टि के लिए सुरो के, असुरो के सभी इन्द्र अपने-अपने परिवार से वहाँ पहुँचे । सत्र की घाँखों में झांसू थे । उनको लगता था - हम श्रनथ हो गये है । शक्र प्रादेश से देवता नन्दन-वन प्रादि से गोशीपं चंदन लाये । क्षीर सागर से जल लाये । इन्द्र ने भगवान् १. कल्पसूत्र, कल्पार्थबोधिनी, पत्र १९४ , २. जं रर्याणि च ण समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सम्यक्प्पहीणे व रवि नव मनई नव सेन्छई काशी-कोसलगा बट्टारस-वि गणरायानो धमावासाए पाराभोय पोहोचवासं पविमु - कल्पसूत्र, सू० १३२ के शरीर को क्षीरोदक से स्नान कराया विलेपन आदि किये, दिव्य वस्त्र प्रोढ़ाये । तदनन्तर भगवान् के शरीर को दिव्य शिविका में रखा । ' इन्द्रों ने वह शिविका उठाई देवों ने जय जय नि के साथ पुष्प वृष्टि की। मार्ग में कुछ देवांगनाएं औौर देव नृत्य करते चलते थे, कुछ देवमणि रत्न मावि से भगवान् की कर रहे थे। धावक-धाविकाएं भी शोक-बिल होकर साथ-साथ चल रहे थे । यथास्थान पहुच कर शिविका नीचे रखी गई। भगवान् के शरीर को गोशीषं चन्दन की चिता पर रखा गया। धग्निकुमार देवों ने धरित प्रकट की । वायुकुमार देवों ने वायु प्रचालित की । अन्य देवों ने घृत और मधु के घट चिता पर ठंडेने जब प्रभु का शरीर भस्मसात हो गया तो मेघकुमार देवों ने क्षीरसागर के जल से चिता शान्त की । शकेन्द्र तथा ईशानेन्द्र ने ऊपर की दायी और बांयी दादों का संग्रह किया। चमरेन्द्र और बलीन्द्र ने नीचे की दाढ़ी का सग्रह किया अन्य देवो ने अन्य दात और अस्थि-खण्डों का संग्रह किया मनुष्यो ने भस्म लेकर सन्तोष माना। अन्त में चिता-स्थान पर देवताओं ने रत्नमय स्तूप की सघटना की ३ । दोपमालोत्सव । C जिस दिन भगवान् का परिनिर्वाण हुम्रा, देव धौर देवियो के गमगागमन से भू-मण्डल बालोकित हुआ४ । मनुष्यों ने भी दीप सोये इस प्रकार दीपमालाप का का प्रचलन हुआ५ जिस रात को भगवान् का परिनिर्वाण हुआ, उस रात को सूक्ष्म कुंधु जाति का उद्भव हुआ। यह इस बात का संकेत था कि भविष्य में सूक्ष्म जीव-जन्तु बढ़ते जायेंगे और संयम दुराराध्य होता जायेगा । अनेक भिक्षु भिक्षुणियों ने इस स्थिति को समझकर उस समय ग्रामरण अनशन किया६ | ३. ( अगले अंक मे समाप्त) परि पर्व १० सर्ग ३ के आधार से ४ कल्पसूत्र सूत्र १३०-३१ ५ सौभाग्यपञ्चम्यादि पर्व कथा संग्रर पत्र १००-११० ६. कल्पानसून सून १२६-३७
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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