SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त काव्यों मे साधारण सिद्धसेन विरचित "विलामवईकहा' अपभ्रश-साहित्य की रचना हुई है और प्रभाव रूप में प्रतिनिधि रचनाए है । ये दोनो ही काव्य प्राकृत सस्कृत-साहित्य की कई विशेषताएं अपभ्रश-कवियो की काव्य-परम्परा से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए उस रचनायो मे मिलती है पर अपभ्रश-भाषा के व्याकरण की शृखला के समान है जो एक ओर प्राभिजात्य रचना की भाति इम देशी भाषा के साहित्य के लिए साहित्यिक सूत्र से सम्बद्ध है और दूसरी मोर नव- शास्त्रीय साहित्य प्रादर्श नही बन सका है। इस साहित्य युगोन्मेषी स्वच्छन्द प्रवृत्तियों की विकसनशील भाव- का समग्र रूप लोक-जीवन से हिल्लोलित है। यथार्थ मे धारा से प्रान्दोलित है। जिसमे एक पोर सामन्तीय समाज वातावरण लोक-जीवन का होने पर भी मालोच्यमान का वर्णन है और दूसरी ओर जन मानव का यथार्थ साहित्य-शास्त्रीय तथा लोकशैली के मध्यवर्ती रूप में लिखा नित्रण है। यद्यपि दोनों प्रबन्धकाव्य धार्मिक परिवेश में गया है। प्रतएव स्थानीय रूप-रगों से चित्रित होने पर रचे गये है पर काव्य-कला की दृष्टि से तथा शृगार की भी प्रबन्ध काब्यो की साहित्यिक शैलियो तथा सामन्तवादी पूर्ण अभिव्य जना होने से विशुद्ध कथाकृतिया है। कथाओं जीवन-रेखायो से भी चचित है। और यही कारण है कि मे निबद्ध घटनाए सहज तथा लोक-जीवन का है। यद्याप शुद्ध रूप में इसे लोक-माहित्य भी नहीं कहा जा सकता कही-कही उन्हें प्रति लौकिक तत्त्वो से भी समन्वित किया। है। यह इन दोनो ही साहित्य के बीच की कड़ी है जो गया है पर वे यथार्थ से दूर नहीं है । उनमे कथाभि- पवन नम कथाभि- परवर्ती युगो मे देशी साहित्य के नाम से अभिहित प्राय तथा रूढ़ियों का प्रचुर सन्निवेश लक्षित होता है। माना यथार्थ में मध्ययुगीन भारतीय साहित्य मे इस प्रकार की कहा जाता है कि हिन्दी के सूफी काव्यों की रचना काव्य-रचनाए विशेष महत्वपूर्ण है जो एक और प्राचीन 'मसनवी' शैली में हुई है। मसनवी का अर्थ 'दो' है। परम्परा का निर्वाह करती है और दूसरी ओर नवीन इसमें प्रत्येक शेर के दो मिसरे होते है। इसका प्रत्येक शेर विधामों में प्राधुनिक भारतीय प्रार्य भाषामो के साहित्य छन्द और भाव की दृष्टि से पूर्ण होता है। मुक्तक की के लिए प्रेरणादायक तथा नव्य भूमिकाए सस्थापित करने भाति इनमे भाव या चित्रपूर्ण होता है तथा वाक्य-रचना वाली सिद्ध हुई है । अतएव पुरानी हिन्दी, जनी गुजराती, भी कसी हुई रहती है। मिसरा समतुकान्त होता है, प्राचीन बगला तथा राजस्थानी ग्रादि भापायों में लिखा जिनका पागे की पवितयो से तूक की दृष्टि से कोई सम्बन्ध हमा प्रारम्भिक साहित्य बहुत कुछ प्राकृत एव अपभ्रश- नही होता। काव्य सगों में या परिच्छेदो मे विभवत न साहित्य से प्रभावित है। प्राधुनिक भारतीय प्रार्यभापायो होकर विषयानुरूप शीर्षको मे तथा घटनाग्रो मे प्राबद्ध के जिन साहित्यिक अग तथा रूपो पर अपभ्रंश-साहित्य रहता है। इस शैली में लिखा गया किसी प्रकार का भी का प्रभाव लक्षित होता है उनमे से मुरूप है-प्रबन्ध- प्रबन्ध काव्य क्यों न हो वह मसनवी माना जायगा । सघटन, पद-शैली, छन्दोयोजना, वर्णन की तारतम्यता, फिरदौसी का 'शाहनामा' और 'यूसुफ-जुलेखा' मसनवी कथानक रूढ़ियों का प्रयोग, भाषागत शब्द-प्रयोग तथा काव्य माने जाते है। किन्तु अपभ्रंश कथाकाब्य पोर भाषा की सवेदनशीलता के हेतु अनुरणन-श्रुति-सगीत-नाद चरितकाव्य की रचना संधिबद्ध होती है तथा सन्धि या आदि विविध तत्वो का समावेश । मध्यकालीन भारतीय परिच्छेद 'कडवकबद्ध' होते है । कडवक पद्धड़िया, प्रडिल्ला, संस्कृति और इतिहास पर भी इस साहित्य के अध्ययन से या उसी प्रकार के किमी छन्दों का समूह होता है पर्याप्त जानकारी मिलती है। केवल भाषा के रूप मे ही जिसमे किसी एक दृश्य या भाव का वर्णन रहता है। नहीं धर्म, समाज तथा संस्कृति के रूप में इस साहित्य के अपभ्रश मे कडवकों तथा उनमे विहित छन्दों की संख्या आलोक में मध्ययुगीन भारतवर्ष के सहजस्फूर्त तथा रूप नियत नहीं है । साधारणत. एक कम्बक में माठ यमक या मे मण्डित रेखा-चित्र परिलक्षित होते है । सोलह पक्तियों का प्रयोग किया जाता रहा है। परन्तु - -- - - - यद्यपि संस्कृत-साहित्य के समानान्तर ही प्राकृत तथा १.देखिए, दिदीबहाकाबकास्वरूप विकास, प्र. ४१६
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy