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________________ बुधवन के काव्य में नीति २५९ धर्म प्रादि को त्रिवर्ग का नाशक बतलाया है ।"शोक के बुधजन की दृष्टि मे अधिक बोलना भी उचित नहीं। विषय मे लगभग यही विचार बुधजन के है वह तो कहते हैं कि जितने परिमित तथा हितकारी वचन सोक हरत है बुद्धि को सोक हरत है धोर। कहे जाए उतना अच्छा । बुधजन अवसर बिना बोलने सोक हरत है धर्म को सोक न कीजै वीर ।२७१॥ को मान का विनाशक बतला कर अवसर पर ही बोलना विपत्ति को दूर करने का सबसे बड़ा उपाय है निवि- उचित समझते है। कल्प मन से उसके लिए यत्न करना। मन पर पड़ी दुख त -भारतीय नीतिकारो ने चुत को भी वयं कहा की छाया मनुष्यको इस ओर प्रेरित नही होने देती इस तरह है। न जुमारी के तिरस्कार की चर्चा करते हुए कहते है विपत्ति सर्वदा बनी रहती है। अतः कवि का कहना है कि- कि प्रेमपूर्वक नीवी खीचने पर पत्नी भी जुमारी पति से विपति पर सोच न करौ को जतन विचार ।३०॥ इमलिए दूर भागती है कि वह कहीं मेरे वस्त्रो को भी न घन-सस्कृत नीतिकारो ने स्थान-स्थान पर धन को छीन ले व मुनन्दि के अनुमार जुआ में प्रासक्त मनुष्य सर्वगुणसम्पन्न कहलाने वाला बतलाते हुए उसकी महिमा खाने की परवाह नही करता, रात-दिन सोता भी नही, गाई है। सोमदेव मूरि के अनुसार धनवान् व्यक्ति ही किसी भी काम मे उमका मन भी नही लगता तथा सर्वदा महान् और कुलीन है।" बुधजन भी धन के प्राधिक्य को चिन्ताकुल रहता है। उक्त नीतिकार-द्वय के समान बुधसौन्दर्य, बल, बुद्धि, धैर्य तथा हितैपियो को समाज मे बढाने जन भी जुआरी के परिजनों द्वारा तिरस्कार तथा शारीवाला बतला कर उमका महत्व स्वीकार करते है।" रिक दुव्यवस्था की चर्चा इन पक्तियो में करके जुमा को किन्तु वह अधर्म, क्लेश व दीनता के साथ लिए धन-मग्रह हेय ठहराने हैको बहन अनुचित भी मानने है ज्वारी को जोड़ तज तजं मातु पितु भ्रात। धर्म हानि संक्लेश प्रति शत्रु विनय करि होय । द्रव्य हरं बरज लर बोले बात कुबात।४५५॥ ऐसा धन नहिं लीजिए भूखे रहिए सोय ।१७२॥ प्रसुचि प्रसन को ग्लानि नहीं रहै हाल-बेहाल । परम्परागत नीतिकारो की तरह बुधजन ने जहाँ धन तात मरत हूँ रत रहै तर्ज न भूमा ख्याल ।४५८॥ के बहुत से लाभ गिनाये वहाँ दो बड़ी हानियो की और बुधजन के अनुसार जुना से केवल परिजनो द्वारा भी संकेत किया है। एक तो उसकी अस्थिरता, दूसरी तिम्रकार तथा ग्यान, पान एव परिधान की अशुचिता ही सर्वदा उसके अपहरण की चिन्ता का बने रहना।" नही मिलती अपितु धन, धर्म या व सुवृत्तियों का विनाश वचन-भारतीय नीति-साहित्य में कटु वचन की बडी भी देखा जाता है। निन्दा की गई है। दशवकालिक मे कठोर, पर-पीड़क, शिकार एवं मांस-भक्षण-प्राचीन नीनि-ग्रन्थों मे सत्य-वचन कहना भी पाप के पाश्रव का कारण बतला कर शिकार-विगेधिनी अनेक उक्तिया मिलती है। व्यास के उसे वजित समझा गया है। बुधजन समस्त मनुष्यो को अनुसार निग्पगध प्राणियों के बधिक की समस्त पुण्यअपना परिजन मानने व उनसे कर्कश वचन कहने का परि क्रियाये क्षीण हो जाती है एवं उनको आपत्तिया बढ जाती त्याग करने पर बड़ा बल देते है हैं।" उत्तगयण में भय और बैर से उपग्त हुए मनुष्य के राम बिना है मानुष जेते भात तात सम जान। जीवन के प्रति ममता रखनेवाले सभी प्राणियों को अपने कर्कश वचन वर्क मति भाई फूटत मेरे कान ।" १८ बुधजन सतसई, दो० २१७ । १२ अनु० मुन्दरलाल शास्त्री : नीतिवाक्यामृत, पृ०३४१ । १६ वही, दो० २२१। १३ अनु० सुन्दरलाल शास्त्री . नीतिवाक्यामृतं, पृ०२६५। २० अनु० सुन्दरलाल शास्त्री, नीतिवाक्यामृतं, पृ०१८ । १४ बुधजन सनसई, दो० १७० । १५ वही. दो०५१६ व १०७। २१ उत्तरायण, ६-७। १६ दशवै कालिक, पृ. ७-११ । २२ वही, दो० ४५४ । १७ बुधजन पद-सग्रह, पद ५७ । २३ अनु० सुन्दरलाल शास्त्री, नीतिवाक्यामृत, पृ० १५ ।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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