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अनेकान्त
इकतीसवें कवि हीरालाल हैं, जो बड़ौत जिला मेरठ के तो भी कविता भावपूर्ण है, और कहीं कहीं पर कोई कोई निवासी थे । अापकी जाति अग्रवाल और गोत्र गोयल पद चुभता हुआ सा है। चूंकि कवि का ४० वर्ष की लघु था। इस वंश मैं जिनदास और मुहकमसिंह या महोकम वय मे ही स० १६५३ में स्वर्गवास हो गया । ग्रथ सूरत सिंह हुए। उनके चार पुत्र हुए। जयकुमार, धनसिह, से प्रकाशित हो गया है। ग्रंथ के प्रत में कवि ने अपना रामसहाय और रामजस । इनमें पंडित हीरालाल धनसिह परिचय निम्न प्रकार से दिया है -- के पुत्र थे। इनके गुरु पं० ठंडीराम थे, जो प्राकृत और प्रथम लाला ग्यानचन्द सुधी सु मोहि पढ़ाइयो, संस्कृत के अच्छे बिद्वान थे। और गोम्मटसारादि सिद्धान्त मम पिता बांकेराय गुण निधि तिन मुझे सिखलाइयो। ग्रन्थों का पठन-पाठन करते थे। उनसे कवि ने अक्षरा- लखि अग्रवाल जु वंश मेरो गोत गोयल जानियों, भ्यास किया था और स्वाध्याय द्वारा जैनधर्म का परि- रिषभेष गुण वर्णनि कियो अभिमान चित नहि ठानियो ।१४० ज्ञान किया था। कवि ने जैनियों के पाठवे तीर्थकर गिन वेद इन्द्री अंक प्रातम, यही संवत् सुन्दरी। चन्द्रप्रभ का पुराण पद्य मे बनाकर वि० स० १६१३ मे कातिक सुकृष्ण दूज भौम सुवार को पूरन करी, समाप्त किया था। कविता साधारण है। प्रथमे विविध छन्दो नक्षत्र अश्वनि ज्ञानचन्द्र सुमेषको मन पावनौ। का उपयोग किया है । ग्रथ सूरत से प्रकाशित हो चुका है। ता दिन विर्ष पूरण कियो यह शास्त्र जो अति पावनौ ।१४१ बत्तीसवे कवि प० तुलसीराम है, जो दिल्ली-निवासी
-आदिपुराण प्रशस्ति थे। पापका जन्म सबत् १९१६ मे अग्रवाल वश और तेतीसवे और चोतीसवे कवि बख्तावर मल और रतन गोयल गोत्र मे हुआ था । आपके पिता का नाम बाँकेलाल लाल है। दोनो अग्रवाल वश मे उत्पन्न हुए थे। ये था। आपके दो छोटे भाई और थे जिनका नाम छोटेलाल काप्ठासपी लोहाचार्य की अम्नाय के विद्वान थे। इनमे और शीतलदास था, वे भी यथाशक्ति धर्मसाधन करते थे। बखतावरमल मित्तलगोत्री और रतनलाल का गोत्र सिहल बाल्य काल से ही आपकी रुचि जैन ग्रन्थो के पढने-सुनने (सिंगल) था। इन दोनो का निवास दिल्ली के कूचा की थी। आपको प० ज्ञानचन्द जी का सम्पर्क मिला, सुखानन्द में था। दोनो मित्र परस्पर 'तत्त्वचर्चा' किया उन्ही के पास आपने व्याकरण और जैन सिद्धान्त के प्रथो करते थे। और दोनो ने ही स्वाध्याय द्वारा अच्छा ज्ञान का अध्ययन किया और थोडे ही समय म सारस्वत व्या- प्राप्त किया था। इन दोनो की मित्रता अन्त समय तक करण, श्रुतबोध रत्नकरण्डश्रावकाचार, गोम्मटसार, अटूट बनी रही, उसमे कभी कोई विकृति नही पाई । सर्वार्थसिद्धि, चर्चाशतक और सागारधर्मामृत प्रादि ग्रन्थो दोनो की धार्मिक लगन और उत्साह देखते ही बनता था। का अध्ययन किया। पश्चात् शास्त्र, सभा एव सत्सगति रतनलाल ने अपने लघु भ्राता रामप्रसाद से अक्षर विद्या से अपने ज्ञान को बढ़ाने का प्रयत्न किया। आपका व्यव- और छन्दो का ज्ञान प्राप्त किया था। इन्होने आराधना साय सर्राफ का था। आपकी फर्म तुलसीराम सागरचन्द कथाकोष की प्रशस्ति में अपना परिचय निम्न प्रकार के नाम से पहले चादनी चौक में चलती थी। बाद में दिया है :दरीबा कला में थी।
अग्रवाल बर अंश है काष्ठासंघी जान। आपने भ० सकलकीति के आदिपुराण का पद्यानुवाद श्री लोहाचारज तनी ग्राम्नाय परमान ॥४६ किया है। जिसे कवि ने स० १९३४ मे कार्तिक कृष्णा पुस्तक गण गछ शारदा मित्तल सिंहल गोत । दोयज के दिन मेरु मन्दिर मे पूरा किया है। ग्रन्थ मे मित्र जुगल मिलके कियो प्रन्थ यही जगपोत ॥४७ दोहा, चौपाई, पद्धडिया, भजगप्रतात, मोतियदाम, नाराच, प्रथम नाम बखताबरमल जानिये, गीता, सर्बया २३ सा, सोरठा, जोगीरासा, त्रोटक छद, रतनलाल दूजे का परमानिये । अडिल्ल गाहा, इन्द्रवज्या, त्रिभगी, सुदरी मरहटी मवैया भ्राता रामप्रसाद तनौ लघु है सही, ३१ सा गाहा, आदि छन्द निहित है। रचना साधारण है तुच्छ बुद्धि ते करी अन्य रचना यहो ।४८ (क्रमशः)