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अनेकान्त
दूसरे अधिकारों में विवाहो का कथन करते हुए ३. जीवन-दर्शन-लेखक गोपीचन्द धाड़ीवाल। स्वयवर विवाह पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला है। और संपादक डा. मोहनलाल मेहता, प्रकाशक पार्श्वनाथ विद्या. नायधम्मकहा के अनुसार उसके स्वरूप और विशेषतायो श्रम शोध संस्था वाराणसी-५ । पृ० सख्या ६८ मूल्य पर विचार किया गया है, पोर लिखा है कि बौद्धागमो में तीन रुपया। स्वयंवर विवाह का कोई उल्लेख नहीं है जब कि श्वेताम्बर
प्रस्तुत पुस्तक मे श्रमण में प्रकाशित लेखो का चयन नायधम्मकहा में उस पर विस्तृत विचार किया गया है।
किया गया है जो लेखक द्वारा समय-समय पर लिखे गये स्वयंवर विवाह के सबन्ध मे दिगम्बर ग्रन्थों का कोई
है। उन्हें पात्मविज्ञान, प्रध्यात्मवाद, कर्मविज्ञान, हिंसा उल्लेख नहीं किया गया जबकि दि. कथा-ग्रन्थो मे राजा
पोर अहिंसा-साधना रूप पांच प्रकरणो मे विभक्त किया प्रकपन की पुत्री सुलोचना के स्वयंवर का उल्लेख है जिस
1 गया है। सभी प्रकरण सम्बद्ध और जनसाधारण के हित
पर में भरत चक्रवर्ती के पुत्र प्रकीति, जयकुमार (भरत की दृष्टि को लक्ष्य मे रखकर लिखे गये है। लेखक की सेनापति) और अन्य अनेक राजकुमार पधारे थे। स्वयबर विचारधारा सन्तुलित और प्रेरणाप्रद है । पुस्तक उपयोगा मे सुलोचना ने वरमाला जयकुमार के गले में डाली थी। है। इसके लिए लेखक और प्रकाशक दोनों ही धन्यवाद इसमें कुछ विरोध हा पोर युद्ध में जयकुमार विजयी के पात्र है। हुप्रा । ऐतिहासिक दृष्टि से यह स्वयवर का उल्लेख बहुत
४ मेरा धर्म केन्द्र और परिधि-लेखक प्राचार्य प्राचीन और महत्वपूर्ण है। दूसरे सीता और दोपदो के
तुलसी, प्रकाशक कमलेश चतुर्वेदी प्रबन्धक प्रादर्श साहित्य स्वयवर की घटनाएं भी उल्लिखित मिलती है।
सघ चुरू (राजस्थान) पृ० सरूपा १२८ मूल्य सजिल्द प्रति तीसरे प्रकरण मे वाहिक जीवन पर प्रका प्रकार का दो रुपया पच्चीस पंसा। डाला गया है, उमसे ज्ञात होता है कि वैदिक काल में प्रस्तुत पुस्तक में २५ निबन्ध विविध विषयो पर दिये पत्नी को प्रादर की दृष्टि से देखा जाता था। बौदागमो हए है, जिनमे वस्तुस्व का का विवेचन सरल भाषा में में पत्नी के भेद बाह्य परिस्थिति पोर स्वभाव को लक्ष्य किया गया है। इनमे से कतिपय निबन्ध अाधुनिक दृष्टि रखकर किये गये है। उन पर से उस काल को पत्नी के से विवेचित है, जैसे लोकतंत्र और चुनाव, विश्वशान्ति प्रकारों का सामान्यबोध हो जाता है। इस तरह यह शोध और प्रणशास्त्र, वृद्ध और सन्तुलन, सर्व धर्म समभाव और प्रबन्ध अपने विषय का स्पष्ट विवेचक है। इसके लिए स्याद्वाद एशिया में जनता का भविष्य । प्राचार्य तुलसी लेखक और प्रकाशक सस्था दोनो ही धन्यवाद के पात्र है। ने जनमानम को वस्तुतत्त्व का बोध कराने के लिए यह मूल्य कुछ अधिक जान पहता है।
उपक्रम किया है। प्रकाशन सुन्दर है।
परमानन्दजैन शास्त्री
अपनी संभाल अन्तरङ्ग के परिणामो पर दृष्टिपात करने से प्रात्मा को विभाव परिणति का पता चलता है । मात्मा पर पदार्थों की लिप्सा से निरन्तर दुखी हो रहा है, माना जाना कुछ भी नहीं। केवल कल्पनामों के जाल में फमा हुमा अपनी मुध मे वेसुध हो रहा है । जाल भी अपना ही पोष है । एक मागम ही शरणा है यही मागम पच परमेष्ठी का स्मरण कराके विभाव से प्रात्मा की रक्षा करने वाला है।
-वर्णी वाणी से