SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८६ अनेकान्त इसमें रन्ध्र' शब्द से लिए गये हैं। क्योकि मल को तत्वार्थ-विषय के जानने की विशेष रुचि को देखकर द्वार छिद्र होते हैं। जैसा 'नव द्वार वह घिनकारी' स्व-पर-हित के लिए गृध्र पिच्छाचार्य के तत्त्वार्थ सूत्र वाक्य से प्रकट है। की 'अर्थ प्रकाशिका' नाम की टीका पांच हजार श्लोकों कवि का अन्तिम जीवन कैसा बीता, और देहोत्सर्ग के परिमाण में बना कर पं० सदासुख जी के पास जयपुर कब हुप्रा यह कुछ ज्ञात नहीं हुमा। भेजी थी। तब सदासुख जी ने उसे ग्यारह हजार श्लोक तेवीसवें कवि जोगीदास है । यह सलेमगढ़ के निवासी प्रमाण बनाकर वापिस उन्हीं के पास मारा भेज दी थी। जैसा कि उसके प्रशस्ति पद्यों से प्रकट है। थे। इनको जाति अग्रवाल थी। इनकी एकमात्र कृति 'अष्टमी कथा' पंचायती मन्दिर खजूर मस्जिद दिल्ली में पूरब में गगातट धाम, अति सुन्दर पारा तिस नाम । मौजूद है, जिसका मन्त निम्न प्रकार है : तामैं जिन त्यालय लस, अग्रवाल जैनी बहु बसें ॥१३ "सब साहन प्रति गड़मलसाह, तातन सागर कियो भवलाह। बहु ज्ञाता तिनमै जु रहाय, नाम तासु परमेष्ठि सहाय । पोहकरणदास ता तनों, नन्दो जब लग ससि-सूरज तनौं। जन प्रन्यमें रुचि बह कर, मिथ्या धरम न चित में परं ॥१४ गुरु उपदेश करी यह कथा, जीवो चिर........ 'सदा । सो तत्त्वारथ सूत्र की, रची वचनिका सार । अग्रवाल रहे गढ़ सलेम, जिनवाणी यह है नित नेम । नाम जु अर्थ प्रकाशिका, गिणतो पांच हजार ॥१५ सुणि कहा मुणि पुष्वह मास, कथा कही पंडित जोगीदास ॥" सो भेजी जयपुर विष, नाम सदासुख जास । चाबासव विद्वान निहालचन्द अग्रवाल हैं। इन्होंने सो पूरण ग्यारह सहस, करि भेजी तिन पास ||१६ सं. १८६७ में 'नयचक्र' की भाव प्रकाशिनी बनाई थी। अग्रवाल कुल कीरतिचंद, जु पारे मांहि सुवास । पच्चीसवें विद्वान पं० परमेष्ठी सहाय हैं, जो पारा परमेष्ठीसहाय तिनके सूत, पिता निकटकरि शास्त्राभ्यास ।१७ के निवासी और श्रावक कीरतचन्द्र के पुत्र थे। इन्होने कियो ग्रन्थ अधिगम सु सदासुख रास नहुँ दिश अर्थ प्रकाश । अपने पिता के पास जैन सिद्धान्त का अच्छा ज्ञान प्राप्त -अर्थ प्रकाशिका प्रस्तावना किया था। उस समय ये पारा मे अच्छे विद्वान समझे छब्बीसवे गद्य भाषा के टीकाकार नन्दराम अग्रवाल जाते थे । सं० १८१४ में परमेष्ठी सहाय पारा से काशी हैं, जो गोयलगोत्री थे। इन्होने प्रागरा मे स. १६०४ में पाये थे, उस समय वहाँ जैनधर्म के ज्ञातानों को अच्छी शैली थी। पारा में प्रापको धार्मिक चर्चा बाबू सीमधर योगसार की टीका बनाई थी। टीकाकार ने प्रागरा के दास जी से हुआ करती थी। इसका उल्लेख कवि वृन्दा ताजगंज के पाश्वनाथ मन्दिर में स्थित भगवान पार्श्वनाथ वनजी ने किया है। इन्होंने साधर्मी भाई जगमोहनदास की श्यामवर्ण की प्रतिमा की अपूर्व महिमा का भी उल्लेख किया है। और वहां के अच्छे शास्त्र मण्डार का १ देखो, बाबा दुलीचन्द का प्रन्थ भण्डार ग्रंथसूची भी उल्लेख किया है। नन्दराम जी ने टीका को उम्मेवी भा०४ पृ. १३४ । लाल के सहयोग से पूर्ण किया था । २ संवत चौरानूमें सुप्राय, मारे ते परमेष्ठी सहाय। संवत उन्निस शतक ऊपर, अंक घरो तुम चार सुधार। मध्यातमरंग पगे प्रवीन, कवितामें मन निशिदिवस लीन। फागुन सेत पुनीत नवीमी चन्द्रवार तीसरा पहार (?) सज्जनता गुन गरुवे गंभीर । कुल अग्रवाल सुविशालधोर। शुभ नक्षत्र विर्ष पूरणकर राजा प्रजा सर्व सुखकार । ते मम उपगारी प्रयमवर्म, सांचे सरधानी विगत भर्म । १७५ चन्द्रसूर जबलों तबलों इह ग्रंथ रह्यो वषको दातार | -प्रवचनसार प्रशस्ति (क्रमश:)
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy