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भारतीय वास्तुशास्त्र में जन प्रतिमा सम्बन्धी ज्ञातव्य
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प्रसाद-देवता, कुल-देवता और सम्प्रदाय-देवता इन तीनो (जिनो के कल्याणमय कार्य एवं काल की गाथाओं) का देव-वर्गों का अभ्युदय हुआ। इन सभी में हिन्दुओ के देवो भी तो यही रहस्य है। तीर्थरो के अतिरिक्त जनों के और देवियो का ही विशेष प्रभाव है। बौद्धो की अपेक्षा जिन-जिन देवो की कल्पना परम्परित हई उसका सकेत जैन हिन्दू-धर्म के विशेष निकट है। जैन-देव वृन्द के इस पीछे भी कर चुके है (दे० जैनधर्म-जिनपूजा) तथा कुछ सकेत में यक्षो को नही भुलाया जा सकता। तीर्थकगे के चर्चा प्रागे भी होगी। प्रतिमा-लक्षण में देवी साहचर्य के साथ-साथ यक्ष-साहचर्य जैनियो की प्रतिमा-पूजा परम्पग की प्राचीनता पर भी एक अभिन्न अंग है। प्राचीन हिन्दू-साहित्य मे यक्षो हम सकेत कर चके है। इस परम्परा के पोषक साहित्यिक की परम्परा, उनका स्थान एक उनके गौरव और मर्यादा एव स्थापत्यात्मक प्रमाणो मे एक दो तथ्यो पर पाठकों के विपुल सकेत मिलते है । जैन-धर्म में यक्षो का तीर्थकर का ध्यान आकर्षित करना है। हाथी गुम्फा-अभिलेख से साहचर्य तथा जैन-गासन मे यक्षो और यक्षणियो का जैन प्रतिमा पूजा शिशुनाग और नन्द राजाप्रो के काल म अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान का क्या मर्म है ? यक्षाधिप कुबेर विद्यमान थी-मा प्रमाणित किया जाता है। श्रीयुत देवो के धनाधिप सकीर्तित है। यक्षो का भोग एव ऐश्वर्य बन्दावन भट्टाचार्य (See Jain Econography P. 33) सनातन से प्रसिद्ध है। जैन-धर्म का सरक्षण सम्पन्न थेष्ठि- ने कौटिल्य के अर्थशास्त्र में निर्दिष्ट जयन्त वैजयन्त, अपकुलो एव ऐश्वयंशाली वणिक-वृन्द में विशेष रूप से पाया राजित प्रादि जिन-देवो को जैन देवता माना है वह ठीक गया है। अतएव यक्ष और यक्षिणी प्राचीन समृद्ध जैन- नही। हाजन साहित्य को एक प्राचीन कृति-- 'अन्तगढ़धर्मानुयायी थावकगणों का प्रतिनिधित्व करते है, ऐसा दामो में 'हरिनेग मेशि' का जो सकेत, उन्होंने उल्लिखित भट्टाचार्य जी का (Scc Jain Econography) अकूत किया है, उससे जिन-पूजा परम्पग ईसा से लगभग ६०० है। हमारी समझ में यक्ष और यक्षिणी तात्रिक-विद्या वर्ष पूर्व तो प्रमाणित अवश्य होती है। मथुरा के पुगतन्त्र-मत्रसमन्विता रहस्यात्मिका शक्ति-उपासना का प्रति- तत्वान्वेषणा से भी यही निस्कर्ष दढ होता है। जेना के निधित्व करते है। हिन्दुओं के दिग्पाल और नवग्रह-देवो वे तीर्थकर की जिससे प्रतीकोपामना व प्रतिमा-पूजा को भी जैनियों ने अपनाया। क्षेत्रपाल, श्री (लक्ष्मी) दोनों की प्राचीनता सिद्ध होती है। शान्ति देवी और ६४ योगिनियों का विपुल वृन्द जैन-देव
जन प्रतिमानों को विशेषताएंवृन्द मे सम्मलित है। अन्त मे जैन तीर्थो पर थोडा सकेत
(अ) प्रतीक-लाग्छन-जन-प्रतिमाएँ ही क्या अखिल यावश्यक है। जैन-तीर्थकरो की जन्म-भूमि अथवा कार्य
भारतीय प्रतिमाएं-प्रतीकवाद (Symbolism) से अनुकैवल्य भूमि जन-तीर्थ कहलाये । लिखा भी है -
प्राणित है । भारतीय स्थापत्य की प्रमुख विशेषता प्रतीकत्व जन्म-निष्क्रमणस्थान-ज्ञान-निर्वाण भूमिषु ।
है। इस प्रतीकत्व के नाना कलेवर्ग में धर्म एवं दर्शन की अन्येषु पुण्यदेशेषु नदीकूले नगरेषु च ॥ ज्योति ने प्राण सचार किया है। तीर्थङ्कगे की प्रतिमोद्ग्रामादिसन्निवेशेषु समुद्रपुलिनेषु च।।
भावना में वगहमिहिर की-वृहत्साहिता के निम्न प्रवचन अन्येषु वा मनोज्ञेष करायज्जिनमन्दिरम् ॥
मे जैन-प्रतिमानो की विशेषतामों का सुन्दर प्राभास! जैन प्रतिमा-लक्षण
मिलता है :जैन प्रतिमानों का प्राविर्भाव-जैन प्रतिमाओं का प्राजानुलम्बाहुः श्रीवत्सांकः प्रशान्तमूर्तिश्च । प्राविर्भाव जैनो के तीर्थकगे से हुआ। तीर्थकगे की प्रति- दिग्बासास्तहणो रूपवाश्च कार्योऽहंता देवः ॥ मायों का प्रयोजन जिज्ञासु जैनो में न केवल तीर्थकरो के अर्थात् तीर्थङ्कर-विशेष की प्रतिमा प्रकल्पन में लम्बे पावन-जीवन, धर्म-प्रचार और कैवल्य-प्राप्ति की स्मृति ही लटकते हुए हाथ (आजानुलम्बाहु), श्रीवत्स-लाञ्छन दिलाना था, वरन् तीर्थकरों के द्वारा परिवर्तित पथ के प्रशान्त-मूर्ति, नग्न-शरीर, तरुणावस्था--ये पांच मामान्य पथिक बनने की प्रेरणा भी। जिनपूजा में कल्याण-पाठ विशेषताए हैं। इनके अतिरिक्त दक्षिण एवं वाम पार्श्व में
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