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________________ ११३ प्राणायामस्तत: कश्चिदाधितो ध्यानसिद्धये। नाऽनिले जित्वा, न ज्ञात्वा च विशेष हि, प्राणायामेन युक्तंन, शक्यो नेतरथा कर्तु मनःपत्रननिर्जयः ॥१॥ हिक्का श्वासश्च काशश्च, यषा सिंहो गजो व्याघ्रः, पुस्तं इस पद्य को देते हुए, विवरण मे प्राणायाम को दूसरों युक्तं चिवेद्वायुं, नामके छह पद्य अपनी अपनी टीका के साथ द्वारा योग के पाठ अंगों में निर्दिष्ट किया है ऐसा दिखला- दिये है। इनके बाद विवरण के ५ से ७ नम्बर वाले तीन कर लिखा है: पद्य है जिनके नम्बर टीका में १५ से १७ दिये हैं, एक ___ "न च प्राणायामो मुक्तिसाधने घ्याने उपयोगी, नम्बर की कमी चली जाती है । विवरण के समाकृष्य प्रसौमनस्यकारित्वात् तथापि कायारोग्य कालज्ञानादौ स यदापानात्' नामक पद्य न० ७ के मनन्तर टीका में जो उपयोगोत्यस्माभिरपोहोपदयते।" एक अतिरिक्त पद्य न० १८ पर दिया है वह इस प्रकार अर्थात्-यद्यपि प्राणायाम मुक्ति के साधन रूप ध्यान है.मे प्रसौमनस्यकारी होने से उपयोगी नही है तथापि शरीर प्रपानेन च लिगेन बहितिं तु मातम् । के प्रारोग्य और कालज्ञानादि में उपयोगी है, इसलिए पूरित्वोवरमारुध्य मुक्तस्तेनापि रेचकः ॥१॥ वह हमारे द्वारा यहा प्रदर्शित किया जाता है। इसके बाद टीका में १६ से ७६ नम्बर तक प्राय: वे ___ यह पद्य टीका में दूसरे नम्बर पर है और इसके बाद सब पद्य है जो विवरण में न०८ से ६४ तक पाये जाते टीका में निम्न दो पद्य 'युग्म' रूप में और दिये है, जो है। विवरणस्थित १२से पद्य के बाद टीका में २४वा जो विवरण में नही है - अतिरिक्त पद्य दिया है उसका रूप हैक्षाराम्लाहारवर्जेन क्षीरभोजनमेव च । "अहो नास्तीवृशं लोके प्राणायामाच्च केवलात् । मिष्टाहार मिताहारं कृत्वा ब्रहन च स (द ) व्रतम् ।।३।। __ प्राणवायुर्जयेत्कृत्स्नान गेगान्न देहसंभवान् ॥" कोधादिचतुष्क्स्य जय त्यक्तपरिग्रहम । तदन्तर युद्धादि प्रश्नो को लेकर टीका में पद्य न. सुखासमं स्थितो योगी प्राणायामं करोति च ॥४॥युग्मं । ८० मे १२५ तक जो ४६ पद्य टीका सहित दिये है वे इनकी टीका के अनन्तर 'किमर्थ करोत्याशक्याह' विवरण मे ६४वे पद्य के अनन्तर नहीं पाये जाते । विवरण इम वाक्य के साथ पाचवा पद्य (टीका सहित) निम्न मे 'वामा शस्तोदय पक्षे' (६५) से लेकर 'रोहिणी प्रकार दिया है: शशिभूल्लक्ष्म' (१३६) तक जो पद्य है वे टीका में प्राय प्राणायाम विना ध्यान न सिद्धयति कदाचन । १२६ से १६२ नम्बर तक पाये जाते है-कहीं कही कुछ मनःपवनमाजेतुं न शक्यते नरैरपि ॥५॥ अन्तर भी है । नम्बर १६२ के बाद टीका मे दो पद्य ये तीनो पद्य विवरण मे नही है। विवरण में जो मूलरूप में निम्न प्रकार दिये है, जो विववण में 'लौकिका 'मनो यत्र महत्तत्र' ग्रादि तीन पद्य नं०२ से ४ दिये प्रप्याहूः' इस वाक्य के साथ उधन हैहै वे टीका में न०६ मे ८ तक है-६ नबर दो पद्यो पर अरुन्धती ध्र व चव विष्णोस्त्रीणि पदानि च । पड जाने से याटि से न० ७ तक है। उनके बाद टीका क्षीणायको न पश्यन्ति चतुर्थ मातृमण्डलम् ॥१८॥ में 'स त्रिधा कथ कार्य इत्याशक्य दर्शयितुमाहायंया' इस अरु धती भवेजिह्वा ध्र व मासाप्रमुच्यते । वाक्य के साथ निम्न पद्य आर्या छन्द में दिया है, जो तीन वारा विष्णुपद प्रोक्त भ्र वो स्यात्मातमण्डलम् ॥१६४।। प्रकार का प्राणायाम कैसे किया जाय । इसे अक्षर-मस्या इनकी टीका न देकर 'एतद्वय सुगम' लिख दिया है। से निर्दिष्ट करता है: विवरण में 'स्वप्ने स्व भक्ष्यमाणं' (१३७) से लेकर स्वरः पूर्यो वायः प्रथममीडया कंभकमिति । 'पृच्छायाः समय लग्ना'-(२०२) तक जो मूल पद्य है चतुःषष्ठया, रेच्यास्तवन रवान पिगला ॥८(९) वे टीका में प्रायः पदय नं० १६५ से २७३ के अन्तर्गत है। इमकी टीका के अनन्तर 'एव सामान्यः प्राणायामो- कहीं कही कुछ पद्य छटे है; जैसे 'वक्षाप्रे कुत्रचित्पश्येत्' ऽतो विशेषप्राणायाममाह" इस वाक्य के माथ सामान्य- (१३६) प्रष्टोतरसहस्त्रस्य जायात् (१७५) मनातुरहते
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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