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अनेकान्त
अधिक सामग्री इस सन्दर्भ मे उपलब्ध नही है।
मानते है, और वह यथार्थ ही प्रतीत होता है । इनके ६ जयदेव पण्डित-शक ६५६ के लक्ष्मेश्वर अभि- द्वारा लिखा गया जैनेन्द्र व्याकरण जैनो का सर्वप्रथम लेख मे विजयदेव पण्डित के गुरू के रूप मे इस जैन पण्डित व्याकरण है। इसके अतिरिक्त सवार्थसिद्धि, समाधितत्र का उल्लेख है। वे मूल संघ की देवगण शाखा की गुरू इप्टोपदेश तथा दशभक्ति आदि ग्रन्थो के भी वह कर्ता परम्परा के थे । हेमचन्द्र ने अपने “छन्दोनुशासन" (१३वी माने जाते है। शताब्दी) मे अनेक छन्द प्रणेता तथा पूर्वाचार्यो का उदयदेव पण्डित--यह पूज्यपाद के शिष्य तथा उल्लेख किया है । उसमे जयदेव का भी नाम प्राता है मूलसघ की देवगण शाखा से सम्बन्धित थे । वह चालुक्य बहुत सम्भव है कि यह जयदेव वही हो । उनकी पण्डित सम्राट् विनयादित्य के पुरोहित थे जैसा कि शक ६५१ के उपाधि से उनके व्याकर्णाचार्य होने की सम्भावना का पता लक्ष्मेश्वर अभिलेख से स्पष्ट है । वे निरवद्य पण्डित, इस लगता है।
उपाधि से भी जाने जाते थे । सम्भवत इनका जीवनकाल ७ विजयदेव पण्डित :-यह जयदेव पण्डित के शिष्य ६७५ ई० से ७३० ई० के बीच में रहा होगा। तथा रामदेवाचार्य के प्रशिप्य थे । वे मूलसघ की देवगण १० प्रभाचन्द्र :-अडूर से प्राप्त दोनो बादामी शाखा के प्राचार्य थे। विक्रमादित्य ने शख तीर्थ वमति के चालुक्य अभिलेखो मे पाप का उल्लेख है । वह सम्भवत घवल जिनालय के जीर्णोद्धार के निमिन तथा जिन पूजा गुरुर्गुरू वासुदेव प्राचार्य के शिष्य थे । धर्म , पुण्ड पुत्रज की वृद्धि के लिए कुछ भूमिदान बाहुबलि श्रेष्ठी के आग्रह श्रीवाल जिसने अडूरमे पच्छिलापट्ट स्थापित किया था, इनका पर विजयदेव पण्डित को प्रदान किया था ।
शिष्य था। प्रभाचन्द्र नाम के अनेक जैन आचार्यों और
गुरुयो का उल्लेख, प्राचीन जैन साहित्य और अभिलेखो ८ पूज्यपाद :-चालुक्य राजा विक्रमादित्य के शक
में मिलता है। सम्भवत यह वही प्राचार्य है जिनका ६५१ के लक्ष्मेश्वर अभिलेख में " इनका उल्लेख है आप
उल्लेख श्री प्रेमी जी ने भी किया है। साक्ष्यो के अभाव चालुक्य सम्राट् विनयादित्य के पुरोहित श्री उदयदेव
में अधिक विस्तार में न जाकर इतना निसन्देहात्मक रूप पण्डित के गुरू थे । मूलसघ की देवगण शाखा के प्राचार्यो
से कहा जा सकता है कि इन प्रभाचन्द्र की पहचान ६ठीमे उनका अपना विशिष्ट स्थान है सम्भवत. पाप बहावी शताब्दी मे हा प्राचार्य प्रभाचन्द्र स हा का जाना पूज्यपाद है जिनका वास्तविक नाम देवनन्दि था तथा
| चाहिए, क्योंकि अडर से प्राप्त अभिलेख पूर्णत प्रामाणिक अपनी बद्धिमत्ता के कारण जा जिनन्द्र बुद्धिकहलाय। है तथा ऊपर बताए गए समय के है। तथा देवो ने उनके चरणो की पूजा की इस कारण उनका
११ वासुदेव :- अडूर से प्राप्त अभिलेखों में प्रभानाम पूज्यपाद पड़ा।
चन्द्र के गुरु के रूप में गुरुर्गुरु वासुदेव प्राचार्य का भी यो देवनन्दि प्रथमाभिधानो बुद्धया महत्या स जिनेन्द्र
उल्लेख है । इनके ग्रुझ का नाम विनयनन्दि था जो परबुद्धिः ।
लुग्गण के थे। सम्भवत. यह वही प्राचार्य है जिनका ____ श्री पूज्यपादो ऽजनिदेवताभिर्यत्पूजित पादयुग
उल्लेख 'वसुदेव-हिडि' के दूसरे खण्ड मे गणितानुयोग के यदीयम् ॥
कर्ता के रूप मे धर्मसेन गणी ने किया है । ___इनके जीवन काल के विषय में विद्वानो मे मतभेद
"अरहंत-चक्कि-वासुदेव-गणितानुयोग-क्रमणि घिट्ट वमुहै। बहुसख्यक विद्वान इनका समय ५वी-६ठी शताब्दी व चरित ति।" इस सन्दर्भ में अभिलेख में अन्य सूत्रों के २३ जैन साहित्य और इतिहाम (प्रेमी) पृष्ठ । प्रभाव में विशेष दृढता के साथ यह मत प्रस्तावित नही २४ इ० ए० जि०७ पृ० ११२ ।
२६ जैन साहित्य और इतिहास (प्रेमी) पृष्ठ २५ और २५ जैन साहित्य और इतिहास (प्रेमी) पृष्ठ २५ और मागे । प्रागे ।
२७ जैन साहित्य तथा इतिहास (प्रेमी) पृष्ठ ६५ ।