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________________ जानार्णवबयोगशास्त्र: एक तुलनात्मक अध्ययन को अपूर्व शक्ति प्राप्त रोती है उसका भी दिग्दर्शन कराया विपय समाविष्ट हैं, भले ही वे क्रम की अपेक्षा पागे पीछे गया है। क्यो न हों। यह बात निम्न विषयसूची से और भी स्पष्ट पाठवे प्रकाश में पदस्थ, नौवे प्रकाश मे रूपस्थ और हो जाती हैदसवे प्रकाश में रूपातीत ध्यान का वर्णन किया गया है। विषय ज्ञानार्णव योगास्त्र इसके अतिरिक्त दमवे प्रकाश मे उस धर्मध्यान के प्राज्ञा- १२ भावनाये पृ. १६-६० ४,५५-११० विचयादि अन्य चार भेदो का स्वरूप दिखलाते हुए उक्त रत्नत्रय ,, ९१-१९५ १, १५ से ३-५५ धर्मध्यान का फल भी मूचित किया गया है। ४ कपाये .. १६६-२१२ ४, ६-२३ __ ग्यारहवं प्रकाश मे पृथक्त्ववितक प्रादि चार प्रकर- इन्द्रियजय . २१२-१६ , २४-३४ के शुक्नध्यान का उल्लेख करके केवली जिनके माहात्म्य मनोनिरोध , २३२-२८ .३४-४४ को प्रगट किया गया है। गग-द्वपजय .. २१६-४५ , ५-५० अन्तिम बारहवे प्रकाश के प्रारम्भ में 'थुन-ममुद्र और माम्यभाव ., २४६-५२ , ५०-५४ गुरु के मुख से जो कुछ मैने जाना है उसका वर्णन कर मंत्री ग्रादि ४ भावनाये .. २७२-७४ , १९७-२२ चुका है, प्रब यहा निर्मल अनुभवसिद्ध तत्त्व को प्रकाशित ध्यानस्थान ॥ २७४-७८ , १२३ करता है ऐसा निर्देश करके विक्षिप्त, यातायात, दिलष्ट धानासन २७८-८० , १२४-३६ प्रौर मूलीन, रन चित्तभेदो के स्वरूप का कथन करते हुए प्राणायाम-प्रत्याहार ,२८४-०३ ५, १-२६१ बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा का स्वरूप भी कहा बहिरात्मादि ३ जीवभेद ३१७-३५ १२, ७-१२ गया है। अन्त मे चित्त की स्थिरता पर विशेष बल दिया प्राज्ञाविचयादि ४ , ३३ -० १०, ७-४ गया है। पिण्डस्थ पदस्थ प्रादि४,३८१-४२३ ७, ८ से १०-६ उक्त दोनों प्रन्यों को समानता शुक्ल ध्यान ४ , ४३०-४७ ११, १-५१ उपर जो दोनों ग्रन्थों का सक्षिप्त परिचय कराया हा. यह अवश्य है कि किसी विशेष विषयकी प्ररूपणा गया है उसमे इतना तो भली भाति विदित हो जाता है यदि एक मे सक्षिप्त है तो दूसरे में वह कुछ विस्तृत है। विषयविवेचन की अपेक्षा दोनो ग्रन्थ समान है-एक में जमे-बहिरात्मा प्रादि ३ जीवभेदोका वर्णन ज्ञानार्णव जिन विषयों का ममावेश है, दूसरे में भी प्राय १ वे ही - (२) ज्ञानाणव म कुछ स्थान ध्यान के अयोग्य कहे गये १. 'प्रायः' कहने का अभिप्राय यह है कि कुछ २४ गये है (१.२७४ दलोक २०-३४), जो योगशास्त्र विषयो की दोनो ग्रन्थो मे हीनाधिकता भी देखी मे नही देखे जाते। इसी प्रकार ध्यानयोग्य प्रासन भी जाती है। जैसे ज्ञानार्णव में निर्दिष्ट हैं (पृ. २७७ श्लोक १-८), (१) ज्ञानार्णव मे ध्यान के प्रशस्त व प्रशस्त इस प्रकार परन्तु इसके लिए योगशास्त्र में यह एक ही लोक सामान्य से दो भेदो का निर्देश करके पात रौद्र पाया जाता हैस्वरूप पप्रशस्त ध्यान का भी निरूपण किया है तीर्थ वा स्वस्थताहेतु यत्तद्वा ध्यानसिद्धये । (पृ २५६-७१) व उनका फल क्रम से तियंच और कृतासमजयो योगी विविक्त स्थानमाधयेत् ।।४-१२३ नरक गति की प्राप्ति बतलाया है। इस प्रप्रशस्त (३) योगशास्त्र मे चारित्र के प्रसग में महाश्रावक ध्यान का उल्लेख योगशास्त्रमे उपलब्ध नही होता- की दिनचर्या (३, १२१-१४७) की प्ररूपणा की गई वहा मात्र ध्यान के धर्म्य और शुक्ल ये दो भेद ही है, जो ज्ञानाणंव में उपलब्ध नहीं होती। वह दिननिर्दिष्ट किये गये है। यथा चर्या सागारधर्मामृत के छठे अध्याय में उपलब्ध होती मुहन्तिमंनःस्थय ध्यान छद्मस्थयोगिनाम् । है, जो यागशास्त्रप्रापित इस दिनचर्या में पर्याप्त धर्म्य शुक्ल च तद्धा यागरोधस्त्वयोगिनाम् ।४-११५ प्रभाविम है।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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