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________________ अनेकान्त में कुछ विस्तार से किया गया है, जो योगशास्त्र में सक्षिप्त इस प्रकार दर्शाया गया हैहै। इसी प्रकार प्राणायाम की प्ररूपणा योगशास्त्र मे तन्नाप्नोति मन स्वास्थ्यं प्राणायामः कथितम् । ज्ञानार्णव की अपेक्षा कुछ विस्तृत है। (देखिए पूर्वोक्त ६-४ का पूर्वार्ध विषयसूची)। इसका उत्तरार्ध इस प्रकार हैइस प्रकार विपयविवेचन व रचनाशैली को देखते प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्याच्चित्तविप्लवः । हए यदि यह कहा जाय कि एक ग्रन्थ को सामने रखकर यह ज्ञानार्णव (प. ३०६) गत श्लोक के पूर्वार्ध दूसरे ग्रन्थ की रचना हुई है तो यह अतिशयोक्ति नही से समानता रखता है। यथाहोगी। उदाहरण स्वरूप यहा दोनो ग्रन्थो के कुछ इलोको प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यादातंसम्भवः । का मिलान किया जाता है, जिससे यह ज्ञात हो सके कि दोनों में अन्तर मात्र 'चित्तविप्लव.' और 'मार्तसम्भवः' एक ग्रन्थ का प्रभाव दूसरे पर सुनिश्चित है। यथा- का है। प्रशंसनीय ध्याता का उल्लेख करते हए ज्ञानार्णव में ज्ञानार्णव (प ३०६) मे निम्न श्लोक के द्वारा ध्यान (पृ. ८५) मे यह कहा गया है के कुछ (१०) स्थान दिखला कर उनमे से किसी एक सत्संयम-धुरा धोरन हि प्राणात्ययेऽपि यः। स्थान पर विषयवाछा मे रहित मन को प्राश्रित करने की स्यक्ता महस्वमालम्ब्य ते हि ध्यान-धनेश्वराः ॥४॥ प्रेरणा की गई है इससे मिलता-जलता यह श्लोक योगशास्त्र मे उप- नेत्रद्वन्द्व श्रवणयुगले नासिकाग्रे ललाटे लब्ध होता है वक्त्रे नाभौ शिरसि हवयं तालुनि भ्रयुगान्ते । प्रमुञ्चन् प्राणनाशंऽपि संयमकधुरीणताम् । ध्यानस्थानान्यमलमतिभिः कीतितान्यत्र देहे परमप्यात्मवत् पश्यन् स्वस्वरूपापरिच्युतः ॥७-२ तेष्वेकस्मिन विगतविषयं चित्तमालम्बनीयम् ॥१३ इसी प्रकरण मे ज्ञानार्णव (पृ ८६) मे दूमग श्लोक यही अभिप्राय योगशास्त्र में निम्न दो श्लोको के यह उपलब्ध होता है द्वारा व्यक्त किया गया है-- स्वर्णाचल इवाकम्पा ज्योतिःपथ इवामलाः । नाभि हृदय-नासाप-भाल-भ्रू-तालु दृष्टयः । समीर इव निःसङ्गा निर्ममत्वं समाश्रिताः ।।१५।। मुखं कर्णां शिरश्चेति ध्यानस्थानान्यकीर्तयन् ।। इसका मिलान योगशास्त्रके निम्न श्लोक से कीजिए- तेषामेकत्र कुत्रापि स्थाने स्थापयतो मनः । सुमेहरिव निकम्पः शशीवानन्ददायकः ।। उत्पद्यन्ते स्वसवित्तबहवः प्रत्ययाः किल ॥६, ७-८ समीर इव निःसङ्गः सुषोर्ध्याता प्रशस्यते ॥७-७ इस प्रकार कितने ही स्थल ऐसे है जहा उक्त दोनो ज्ञानार्णव मे (पृ. २१८) 'मोना मृत्यु प्रयाताः' आदि ग्रन्थो के अन्तर्गत अनेक श्लोकों मे शब्द, प्रर्थ अथवा २ श्लोकों (३५-३६) के द्वारा पाचों इन्द्रियो मे से एक उभय से भी समानता देखी जाती है। इसके अतिरिक्त एक इन्द्रिय के वशीभूत होकर कष्ट भोगने वाले मछली प्राणायाम का प्रकरण तो ऐसा है जहा पूरे प्रकरण मे ही आदि प्राणियों का उदाहरण देते हुए उन प्राणियो पर प्रायः अनुक्रम से दोनों ग्रन्थों में समानता पाई जाती है। पाश्चर्य प्रगट किया गया है, जो पांचो ही इन्द्रियो के इस प्रकरण को प्रारम्भ करते हुए ज्ञानार्णव (प. विषयों में मग्न रहा करते है। २८४) मे कहा गया है कि जिन मुनियों ने सिद्धान्त का यही अभिप्राय योगशास्त्र में भी ६ (४, २८-३३) निर्णय कर लिया है वे ध्यान की सिद्धि और अन्तरात्मा श्लोकों द्वारा व्यक्त किया गया है। (अन्तःकरण) को स्थिर करने के लिए प्राणायाम की मानार्णव (प. ३०५) में श्लोक ४ का उत्तरार्ध है- प्रशंसा करते हैं । यथा-- प्राणायामेन विक्षिप्तं मनः स्वास्थ्यं न विन्दति । सुनिर्णीतसुसिद्धान्तः प्राणायामः प्रशस्यते । यही भाव उसी प्रकार के शब्दो द्वारा योगशास्त्र में मनिभिनिसिखयर्थ स्थर्यापं चान्तरात्मनः ॥१
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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