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________________ देवगढ का शान्तिनाथ जिनालय अन्दर 'देव' मूर्तियो की प्रचूरता होने के कारण कदाचित् की देखरेख में एक विणाम और मान्यपूर्ण महामय इस स्थान का नाम देवगढ पड़ा। का निर्माण हो गा है। देवगढ़ में सम्प्रति उपलब्ध पुरातत्व सामग्री इस तथ्य यद्यपि देवगढ की जैन कला और पुरातत्व का की पोषक है कि मौर्य युग से लेकर ईसा की १४वी विशेष अध्ययन में कर रहा हूं, किन्तु मेरे इस निबन्ध में १५वी शती तक मुख्य रूप से और १५वी शती तक गौण वहा के एक विदोष उल्लेखनीय मन्दिर का ही परिचय रूप से राजनैतिक, धार्मिक, कलात्मक, ऐतिहासिक और। दिया जा रहा है। साँस्कृतिक गतिविधियो का केन्द्र रहा। यद्यपि वहा के मान्वर सख्या १२ बहुसख्यक स्मारक धराशायी हो गये हैं. और प्रकृति की और पतिकी देवगढ़ दुर्ग के पूर्वी कोण पर जैन मन्दिर ममह के गोद में समाविष्ट है, पुनरपि भारतीय पुरातत्वजो एवं मध्य में अवस्थित इस विशाल, भव्य मोर गगनचुम्बी अन्य समाजसेवियो के प्रयत्न से जो जीरोद्धार होकर पश्चिमाभिमुग्व मन्दिर के प्राकार प्रकार मे अनेक सामने आई है, वह भी बहत है। इस दिशा में मन् सम्भावनाये छिपी है। वर्तमान में यह पचायतन शैली १८७४ में मर्वप्रथम अलक्जेन्डर कनिंघम का ध्यान गया। का मन्धार-प्रामाद है। हम सर्वप्रथम अर्धमण्डप में प्रवेश इस सन्दर्भ में रायबहादुर दयाराम साहनी, विश्वम्भग्दाम करते है। उममे मे ६ मीढियो द्वारा एक चौडे पबतरे गार्गीय और नायराम सिंघई की मेवाये भी उल्लेखनीय पर पाते है । नब छह-छह म्नम्भो की छह पक्तियो पर महत्व रखती है। देवगढ पुरातात्विक अध्ययन और आधारित एक भव्य महामण्डप में प्रवेश करते हैं. जिसके जीर्णोद्धार के क्षेत्र में ललितपुर के श्री परमानन्द बग्या बायें म० स० १३ प्रौर म० स. १४ को दक्षिणी दीवाने ने जो गहरी दिलचम्पी ली है, उन्होने शामन और ममाज स्थित है। इन दीवालो और महामण्डप के बीच लगभग के महयोग से देवगढ की जो सेवा की है और कर रहे हैं, ३ फुट का जो अन्तर पा उममें महामण्डप के फर्श से १ वह तब तक नही भूलाई जा सकती, जब तक देवगढ का फुट ६ इच ऊची और २ फूट लम्बी वेदी बना दी गई। अस्तित्व है। क्षेत्रीय प्रबन्ध समिति के वर्तमान मत्री पोर उम पर २० शिलापट स्थापित किये गए हैं जिनमें श्री शिखरचन्द्र मिघई भी क्षेत्र के बहमुखी विकाम के में दो पर पद्मासन और शेष पर कायोत्सर्गासन तीथंकर लिये सतत् प्रयत्नशील हैं, माह शान्तिप्रमाद जी ने भी मूनिया उत्कीर्ण है। महामण्डप मे अन्तराल में पहुंचा जीर्णोद्धार में स्तुत्य सहयोग किया है। जाता है और जिसके दायें बाय एक एक मढिया विद्यमान देवगढ में सम्प्रति ४० मन्दिर (पुगतत्व विभाग है। बाय पार की माढया में विति-भुजी चक्रेश्वरी' द्वारा प्रकित १ जीर्णोद्वार प्रादि द्वारा अन्वेपित ह न . यह प्रथम नीर्थकर भगवान ऋषभनाथ की शासन मन्दिर ४.) और १८ मानस्तम्भ या स्तम्भ विद्यमान देवी है, - हैं। इसके अतिरिक्त महस्त्राधिक खण्डित अण्डिन द्रष्टव्य-(घ) निवषम निलोय पणती, भाग १, मूर्तियों को चिन कर एक प्राचीर मदश दिवाल है, जो ८६२७, डा० ए०एन० उपाये और डा. हीरालाल यहाँ के प्रमुख मंदिर मख्या १२ को घेरे हुए है। अनेक जैन सम्पादिन, गोलापुर, १९४३ । १० २६७ टोलो प्रादि पर मूर्तियों और भवनो के अवशेष म्पष्ट देखें (ब) प. प्रागाधर, प्रतिष्ठामागेद्धार, अध्याय ३ जा सकते हैं। दुर्ग के पूर्व की पोर हाथी-दरवाजे मे पद्य १५६, बम्बई वि० म० १६७४ । पत्र ७. भी कुछ जैन मुर्तियों जडी हई है। नीम कोट के बाहर (म) नेमिचन्द्र देव, प्रनिष्ठानिलक, परि०७ पर। भी जन सामग्री यदा कदा प्राप्त होती रहती है। पर्वत के बम्बई, १९१८ । पृ. ३८७-२४१। नीचे जैन धर्मशाला मे एक चैत्यालय है और यही माह म) शुक्ल, डा० दिजेन्द्रनाथ, भाग्नीय वास्तुशास्त्र, मान्तिप्रसाद जी की पोर से श्री विशनचन्द प्रवर्गमयर प्रनिमाविज्ञान, ८वा पटल पृष्ठ २७०
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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