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मोक्ष प्रात्मा सुख नित्यः शुभः शरणमन्यथा । भवोऽस्मिन् वसतो मेन्यत् कि स्यादित्यापदि स्मरेत् ।। १. टमी और चतुर्दशीको चापदिनों मे चारों प्रकार के माहार का परित्याग करना, इसका नाम प्रोषधोपवास है । प्रोषधोपवास का यह लक्षण रत्नकरण्डक ( १०६) और सागारधर्मामृत ( ५-३४) दोनो ग्रन्थो मे प्राय समान ही देखा जाता है । पर साध मे उसके उत्तम - चार भुक्तिक्रियाओ का परित्याग १, मध्यन - जल को न छोड़कर शेष चार प्रकारके बाहार का परित्याग और जघन्य प्राचाम्ल व निविकृति यादि को रखकर शेष प्रहार का त्याग इस प्रकार प्रोषधोप वासव्रती को शक्ति के अनुसार तीन भेद कर दिये गये है । इस प्रकार की विशेषता समन्तभद्र को अभीष्ट नही रही दिल्ती |
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सागारधर्मात पर इतर आवकाचारों का प्रभाव
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इसके अतिरिक्त समन्तभद्र ने उपवास के दिन विशेष रूप से जो पांच पावकर (दार) आदि का परित्याग कराया है३ उसके ऊपर ग्रन्थ के विस्तृत होने पर भी पं० श्रशाधर ने बल नही दिया ।
१०. रत्नकरण्डक मे सल्लेखना का स्वरूप इस प्रकार कहा गया हैउपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । पर्माय तनुविमोचनमा सल्लेखनामार्याः ।। १२२ ।।
इसी को लक्ष्य में रखकर सा. ध. मे भी लगभग इसी प्रकार से उसका स्वरूप कहा गया है
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१. चतुर्भुवनं चतणा मुक्तीना भोज्यानामशनचतुर्भुक्त्युज्झनं स्त्राद्य-खाद्य-पेयद्रव्याणा भुक्तित्रियाणा च स्यामः एका हि भूक्तिविया धारकदिने हे उपनायटिने चतुर्थी च पारकदिने प्रत्याख्यायते । (मा. घ. स्वो टीका ५-३४) २. तथाचाम्लम् कृतमोवी रविनभोजनम्। निवि कृति - विजिये जिह्वा-मनसी येनेति विकृतियोंरसेरस वित्रियेते फलरम-धान्य रसभेदाच्चतुर्धा । तत्र गोरसः क्षीर-घृतादि, इक्षुरम खण्ड- गुडादिः, फलरसो द्राक्षा म्रादिनिष्यन्दः, धान्य रसस्तैल- मण्डादि । अथवा यद्येन सह भुज्यमान स्वदते विकृतिरित्युच्यते तेन भोजनं निविकृतिः (सा. प. वो टीका ५-३५)
३. र. क. १०७.
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धर्माय व्याषि- दुर्भिक्ष-जरावो निष्प्रितिक्रिये । वक्तुं वपुः स्वपाकेन तच्च्युतो वाशनं स्वजेत् ॥८-२०
११. आगे इसी प्रकरण में सल्लेखनाविधि का वर्णन करते हुए रत्नकरण्डक में कहा गया है कि सल्लेखना के समय शोक व भय आदि को छोड़कर प्रात्मबल के साथ उत्साह को प्राप्त होता हुआ श्रागमवाक्यों के प्राय से मन को प्रसन्न करे और तब ग्राहार- कवलाहार - का परित्याग करके स्निग्ध पान-पीने योग्य दूध आदिको वृद्धिगत करे। फिर क्रम से उस दूध प्रादि को भी छोड़कर खरपान - शुद्ध गरम जल को रक्खे प्रौर अन्त में उसे भी छोड़कर उपवास को स्वीकार करता हुआ पंच-नमस्कार मंत्र मे दत्तचित्त होकर शरीर को छोड़ दे४।
रत्नकरण्डकोक्त इसी त्यागक्रम को प्राय: सा. घ. में भी अपनाया गया है५ । विशेष इतना है कि रत्नकरण्डक मे जहा केवल सात श्लोकों में (१२२-२८) ही उक्त सल्लेखना का वर्णन किया गया है वहां सा. ध. में
४. र. क. १२६-२८
५. सा. ध. प्राहारादि का त्यागक्रम ८, ५५-५६ व ६३-६४ पचनमस्कार मंत्र के स्मरण के साथ शरीरत्याग ८-११०.
उक्त दोनों ग्रन्थों की टीकामों मे जो मूल ग्रन्थगत कुछ पदों का स्पष्टीकरण किया गया है उसमें भी समानता देखी जाती है । यथा
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र. क. टीका बाहारं कबलाहाररूपम् \ स्तिग्म दुग्धादिरूपं पानं विवर्धयेत् परिपूर्ण दापयेत्खान कजिकादि शुद्धपानीयरूपं वा । (परि. ५, श्लोक ६ )
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सा. ध. स्वो टीका — कि तत् ? प्रशनं कवलाहारम् । स्निग्धपानं दुग्धादि ( ८-५५) । किं तत् ? खरपान प्रथम काञ्जिकादिरूपं पश्याच्च शुद्धपानीरूपम् (८.५६)। यह विशेष स्मरणीय है कि शाधर ने रनकरण्डक के पं प्रशाधर टीकाकार प्रभाचन्द्र का बड़े आदर के साथ स्मरण किया है । यथा यथास्तत्र भगवन्त श्रीमत्प्रभेदेवपादा रत्नकरण्डकटीकाया चतुरावर्तत्रितय इत्यादिसूत्रे (अन. ध. ८-९३) । ' सूत्रे' कहने से यह भी ज्ञात हो जाना है कि पं० श्राशावर प्रस्तुत रत्नकरण्डक को सूत्रग्रन्थ जैसा हो समझते थे।
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