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________________ अनेकान्त ५. रत्नकरण्डक में कहा गया है कि दिग्ब्रत धारक नियम-परिमित काल-और यम-यावज्जीवन-के रूप श्रावक के अणुव्रत महाव्रत रूपता को प्राप्त हो जाते है। मे किया गया है उसी प्रकार सा.ध. (५-१४) में भी कारण यह कि दिग्धत मे स्वीकृत मर्यादा के बाहिर उनके प्रमाण का विधान किया गया है। गमनागमन का प्रभाव हो जाने से उसके स्थूल पापों के ७. सामायिक के प्रकरण मे उसके काल को लक्ष्य में समान सूक्ष्म पापों की भी निवृत्ति हो जाती है। इसके रखकर रत्नकरण्डक मे कहा गया है (१८) कि जब तक अतिरिक्त उसके द्रव्य प्रत्याख्यानावरण-संयमघातक- केशों का बन्धन, मुट्ठी का बन्धन, वस्त्र का बन्धन (गाठ) सामान का मन्दादय हा जान स भावरूप चारित्रमाह के और पर्यक भासन का बन्धन शिथिलता को प्राप्त नही परिणाम भी अतिशय मन्दता को प्राप्त हो जाते हैं, अतः होता है तब तक सामायिक बैठकर या खड़े रहकर करना उनका रहना न रहने के बराबर है। चाहिये। यही बात सा. ध. मे भी लगभग वैसे ही शब्दों मे रत्नकरण्डक के उक्त कथन का अनुसरण कर सा. ध. कही गई है। उभय ग्रन्थगत वे श्लोक निम्न प्रकार है१ में भी कहा गया है कि प्रारमध्यानी केशबन्धन प्रादि के प्रवघर्ष हिरणुपापप्रतिविरतेदिग्वतानि धारयताम् । छुटने तक२ साधु के समान जो समस्त हिंसादि पापों का पचमहावतपरिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते ॥ परित्याग करता है, इसका नाम सामायिक है (५-२८) । प्रत्याख्यानतनुत्वा-मन्वतराश्चरणमोहपरिणामा । .. इसी प्रकरण मे सामायिक के समय श्रावक को सत्त्वेन दुरवधारा महावताय प्रकल्प्यन्ते ॥ क्या विचार करना चाहिए, इसकी सूचना रत्नकरण्डक मे -र. के ७०-७१। इस प्रकार की गई हैदिग्विरत्या बहिः सौम्नः सर्वपापनिवर्तनात् । प्रशरणमशभमनित्यं दुख मनात्मानमावसामि भवम । तप्तायोगोलकल्पोऽपि जायते यतिवद् गही। मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके ॥१०॥ दिखतोद्रिक्तवत्तघ्नकषायोदयमान्यतः । इमका मिलान सा.ध. के निम्न श्लोक (५-३०) महावतायतेऽक्ष्यमोहे गहिन्यणुव्रतम् ॥ के साथ कीजिये -सा ध.५,३-४। ६. रत्नकराउक में भोगोपभोगपरिमाणधत के २ कियत्कालम ? केशबन्धादिमोक्षं यावत्-केशबन्ध प्रगप मे भोगोपभोग वस्तुयो का प्रमाण कर लेने के अनि ग्रादियषा मुष्टिबन्ध-वस्त्रग्रन्थ्यादीना गहीतनियमकालावरिक्त मधु, माम, मध, अल्पफल व बहुविधान रूप प्रादक च्छे दहेतूनां ते केशबन्धादय , तपा मोक्षो मोचन तमवधी कृत्य (अदरख) आदि तथा अनिष्ट और अनुपमेव्य पटाची स्थितम्येत्यर्थ. । सामायिक हि चिकीर्पविदय केशबन्यो के परित्याग की प्रेरणा की गई है। (८२,८४-८६) वस्त्रग्रन्थ्यादिर्या मया न मोध्यते तावत् साम्यान्न प्रचलि. ठीक उसी प्रकार से सागारधर्मामृत मे भी उक्त ज्यामीति प्रतिज्ञा करोति । (सा ध. स्को टीका ५-२८) भोगोपभोग वस्तुग्रो का प्रमाण कर लेने (५-१३) के यद्यपि इग टीका में 'मया न मोच्यते' कहकर यह साथ माग के समान सघातजनक, मधु के समान बहु समान बहु अभिप्राय प्रगट किया गया है कि जब तक मैं उपयुक्त विघातजनक. मद्य के समान प्रमादोत्पादक, अनिष्ट पार न प्रादि को नही छोड देता है तब तक म मामाअनुपसेव्य पदार्थों के भी परित्याग की प्रेरणा की गई है यिक से विचलित नही होऊगा, ऐसी प्रतिज्ञा सामायिक व्रती करता है, पर प्रा. समन्तभद्र का अभिप्राय भी ऐसा ही इसके अतिरिक्त उक्त भोगोपभोग वस्तुप्रो के परि रहा हो, यह सम्भावना बहुत कम की जा सकती है। माण का विधान जिस प्रकार रत्नकरण्डक (८७) में उक्त कथन से तो यही अभिप्रेत दिखता है कि बालों १ उभय ग्रन्थगत इन इलोको का टीका भाग भी प्रादि में लगाई गई शिथिलतापूर्ण गांठ प्रादि जब तक ६ष्टव्य है। नहीं छूट जाती है तब तक सामायिक में स्थित रहूँगा।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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