SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७२ अनेकान्त सहते इति श्रमणः) अर्थात् जो स्वयं तपश्चरण करते है, जैन शास्त्रों में गुणस्थान चर्चा में जो मुनि क्षपणक वे श्रमण है। श्रेणी प्रारोहण करता है, उसके सम्बन्ध मे भी लगभग "वातरशना हवा ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमथिनी बभूवः।" ऐसा ही वर्णन आता है। श्रेणी प्रारोहण करनेवालाश्रमण -तैत्तिरीयारण्यक २१७ मुनि पाप और पुण्य दोनों से रहित हो जाता है और सायण-"वातरशनाल्या ऋषयः श्रमणास्तपस्विनः कषाय तथा घातिचतुष्क का नाश करके कैवल्य की प्राप्ति . . ऊर्वमन्थिनः कवरेतसः" कर लेता है। श्रमण सतयुग में प्रायः होते हैं, ऐसी मान्यता भागवत-दिगम्बर श्रमण ऋषि तप से सम्पूर्ण कर्म नष्ट करके ऊर्ध्वगमन करनेवाले हुए। कृते प्रवर्तते धर्मश्चतुष्पात्तन्जन तः । ___ सम्पूर्ण कर्म नष्ट होने पर जीव ऊर्ध्वगमन करता है सत्यं दया तपो वानमिति पादा विभोन प॥ और लोक के अन्त तक चला जाता है। जीव का स्वभाव सन्तुष्टाः करुणा मंत्राः शान्ता बान्तास्तितिक्षवः । ऊर्ध्वगमन करने का ही है, वह सदा से इसके लिए प्रयत्न मात्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणा जनाः ॥ करता रहा है। किन्तु कर्मों का भार होने के कारण वह --भागवत १२-३-१५-१६ उतना ही ऊर्ध्वगमन करता रहा, जितना कर्मों का भार श्री शुकदेव जी कहते है-हे राजन ! कृतयुग में कम था। किन्तु जब कर्मों का भार बिल्कुल हट गया और धर्म के चार चरण होते है-सत्य, दया, तप और दान । ___ इस धर्म को उस समय के लोग निष्ठापूर्वक धारण करते जीव कर्मों के बन्धन से मुक्त हो गया तो अपने स्वभाब के है । सतयुग मे मनुष्य सन्तुष्ट, करुणाशील, मित्रभाव रखने अनुसार वह लोक के अन्त तक ऊर्ध्व गमन करता है। वाले, शान्त, उदार, सहनशील, प्रात्मा मे रमण करने वाले ("तदनन्तरमूवं गच्छत्यलोकान्तात्॥" तत्वार्थ सूत्र१०१५) और समानदृष्टि आदि प्रायः श्रमणों में ही होती है। जैन शास्त्रों में जहा पर भी मोक्ष का वर्णन पाया है, जैनाचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में कृतयुग में ही वहा पर इसका विस्तार से कथन मिलता है। सम्भवत. ऋषभदेव का जन्म माना है । उस युग का नामकरण ही श्रमण वातरशना मुनियो के लिये ऊर्ध्वमथी ऊर्ध्वरेता कहने। ऋषभदेव के कारण हुमा और वह कृतयुग कहलायामें वैदिक ऋषियों को जन-शास्त्र मम्मत ऊर्ध्वगमन ही "युगादि ब्रह्मणा तेन यदित्थं स कृतो युगः । अभीष्ट रहा है। ततः कृतयुगं नाम्ना तं पुराणविदो विदुः ।। अब यहा वृहदारण्यकोपनिषद् का एक और स्पष्ट प्राषाढ़मासबहुलप्रतिपद्दिवसे कृती । उद्धरण अवतरित करते है कृत्वा कृतयुगारम्भं प्रजापत्य मुपेयिवान् ॥" "श्रमणोऽश्रमणस्तापसोऽतापसोऽनन्वागतं पुण्यना नन्या- (शेष पृष्ठ २८१) -आदि पु० १६।१८६-१९० गतं पापेन ती! हि तवा सच्छिोकान् हृदयस्य भवति ।" कान् हृदयस्य भवात । १ कृतयुग-१७२८०००। सतयुग का प्रारम्भ कातिक ___-वृहदा० ४१३।२२ से हुग्रा। श्रमण प्रथमण और तापस अतापस हो जाते है। उस वेतायुग-१२६६०००। ममय तक पुरुष पुण्य से असम्बद्ध तथा पाप में भी असम्बद्ध द्वापर-८६४०००। (वैदिक काल-गणना) कलियुग-४३२०००। होता है और हृदय के सम्पूर्ण गोको को पार कर लेता २ "मसमदसमम्मि णामे सेसे चउसीदिलक्खपत्वाणि । वासतए अडमासे इगिपक्खे उसह उप्पत्ती ॥ ४।५५३ (श्रमणः परिवाट्-यत्कर्म निमित्तो भवति, सतेन -तिलोयपण्णत्ती भा० १ बिनिमक्तत्वादश्रमणः।" -शांकर भाप्य "सुषम दुःषमा नामक काल मे चौरासी लाख पूर्व, तीन "श्रमण' अर्थात् जिस कर्म के कारण पुरुष परिवाट वर्ष आठ माह और एक पक्ष शेष रहने पर वृषभदेव होता है उससे मुक्त होने के कारण बह श्रमण हो का अवतार (जन्म) हुमा"। (यहां कृतयुग काल जैन जाता है। गणना के अनुसार है)- ।.
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy